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वाष्पम्
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वासना
है यद्यपि भरतादि के द्वारा इसका प्रतिपादन नहीं किया गया तथापि स्पष्ट रूप से चमत्कारक होने के कारण इसे भी रस माना जाना चाहिए। इसका स्थायीभाव वत्सल है, पुत्रादि इसके आलम्बन हैं। उनकी चेष्टायें, यथा विद्या, शूरता, दया आदि उद्दीपन, आलिङ्गन, अङ्गस्पर्श, शिरश्चुम्बन, देखना, पुलकित होना, आनन्द के अश्रु आदि इसके अनुभाव हैं तथा अनिष्टशङ्का, हर्ष, गर्व आदि व्यभिचारीभाव हैं। पद्मगर्भ के समान इसका वर्ण तथा देवता ब्राह्मी आदि लोकमातायें हैं- स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः । स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्राद्यालम्बनं मतम् । उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्योदयादयः । आलिङ्गनाङ्गसंस्पर्शशिरश्चुम्बनमीक्षणम् । पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावा: प्रकीर्तिताः । सञ्चारिणोऽनिष्टशङ्काहर्षगर्वादयो मताः । पद्मगर्भच्छविर्वर्णो दैवतं लोकमातरः। यथा-यदाह धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गुलिम् । अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः ।। इसमें दिलीप के पुत्र रघु की बाल्यावस्था का वर्णन है जो उसके पिता को आनन्दित करती है। दिलीपगत वत्सल स्थायीभाव, रघु (बालक) आलम्बन, उसका भाषण, गमनादि चेष्टायें उद्दीपन, आलिङ्गनादि अनुभाव, तथा हर्षादि व्यभिचारीभाव हैं। (3/235)
वाष्पम् - - शिल्पक का एक अङ्ग। (6/295)
वासकसज्जा-नायिका का एक भेद। सजाये हुए महल में सखी जिसका शृङ्गार कर रही हो तथा उसे प्रिय के समागम का पता हो, वह वासकसज्जा कही जाती है - कुरुते मण्डनं यस्याः सज्जिते वासवेश्मनि । सा तु वासकसज्जा स्याद्विदितप्रियसङ्गमा । । यथा - रा. आ. नाटक का यह पद्य - विदूरे केयूरे कुरु करयुगे रनवलयैरलं गुर्वी ग्रीवाभरणलतिकेयं किमनया । नवामेकामेकावलिमयि मयि त्वं विरचयेर्न पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमनङ्गोत्सवविधौ । । यहाँ सखी के द्वारा सजायी जाती हुई नायिका अनङ्गोत्सव के अनुकूल आभूषण धारण कर रही है। (3/98)
वासना - रसास्वाद का कारणभूत एक संस्कारविशेष | काव्य/नाट्य से सभी को समान रूप से रस की अनुभूति नहीं होती। केवल वासनाख्या संस्कार से युक्त सभ्यजनों को ही रस का आस्वादन हो पाता है। वासना से अभिप्राय