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________________ भाविकम् भावसन्धिः 131 न किञ्चित्।। यहाँ वाष्पमोचन से ईर्ष्यानामक सञ्चारीभाव की शान्ति हो रही है। (3/244) भावसन्धिः- दो भावों का मिलन। समान चमत्कार वाले दो भावों की सन्धि भावसन्धि कही जाती है। यथा-नयनयुगासेचनकं मानसवृत्त्यापि दुष्प्रापम्। रूपमिदं मदिराक्ष्या मदयति हृदयं दुनोति च मे।। तरुणी सुन्दर होने के कारण आनन्दित तथा दुर्लभ होने के कारण एकसाथ विषष्ण भी कर रही है।अतः हर्ष और विषाद भावों की सन्धि है। (3/244) भावसन्धिः-एक अर्थालङ्कार। जहाँ समान चमत्कार वाले दो भावों की सन्धि किसी अन्य का अङ्ग बनकर आये वहाँ भावसन्धि नामक अलङ्कार होता है। यथा-जन्मान्तरीणरमणस्याङ्गसङ्गसमुत्सुका। सलज्जा चान्तिके सख्याः पातु नः पार्वती सदा।। इस पद्य में उत्सुकता और लज्जा नामक भाव देवताविषयक रतिभाव के अङ्ग हैं। (10/125) . भावाभासः-अनौचित्यप्रवृत्त भाव। कोई भाव यदि अनौचित्य से प्रवृत्त हुआ हो तो उसे भावाभास कहते हैं-अनौचित्यप्रवृत्तस्याभासो रसभावयोः। भरतप्रोक्त रसभाव के लक्षणों का पूर्णरूप से प्रवृत्त न हो पाना भावाभास है। यथा, वेश्या आदि में लज्जा आदि के भाव को वर्णित करना भावाभास है। (3/241, 43) भाविकम्-एक अर्थालङ्कार। भूत अथवा भावी किसी अद्भुत पदार्थ के प्रत्यक्षायमाण होने को भाविक कहते हैं-अद्भुतस्य पदार्थस्य भूतस्याथ भविष्यतः। यत्प्रत्यक्षायमाणत्वं तद्भाविकमुदाहृतम्।। यथा-मुनिर्जयति योगीन्द्रो महात्मा कुम्भसम्भवः। येनैकचुलुके दृष्टौ दिव्यौ तौ मत्स्यकच्छपौ। तथा, आसीदञ्जनमत्रेति पश्यामि तव लोचने। भाविभूषणसम्भारां साक्षात्कुर्वे तवाकृतिम्।। पूर्वपद्य में अगस्त्य ऋषि का वर्णन है जिन्होंने एक चुल्लु में सागर का पान करते हुए मत्स्य और कच्छप (अवतारों) को देखा। इस वर्णन से मानो भूत की घटना प्रत्यक्षवत् हो उठती है। द्वितीय पद्य में नायिका की वह अवस्था जब वह अञ्जन लगाया करती थी (भूत) तथा जब वह आभूषणों से रमणीय होगी (भविष्य), प्रत्यक्षायमाण है। यह प्रसादगुण नहीं है क्योंकि वह भूत और भावी के प्रत्यक्षायमाणत्व
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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