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नैतिक उत्थान के लिए अहिंसा, सेवा, मैत्री, दान, संयम, अपरिग्रह, कृतज्ञता, भाव-शुद्धि जैसे मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की। तृतीय शिलालेख में बताया गया है कि "माता-पिता की सेवा करना, मित्र, परिचित, जाति, ब्राह्मण और श्रमणों को दान देना अच्छा है, कम खर्च करना व कम संचय करना अच्छा है। उसने इन अभिलेखों के माध्यम से प्रजा में अहिंसा की भावना को जगाया। जीवन में अहिंसा को उतारने के लिए आहार पानी की शुद्धि का निर्देश दिया। प्रथम तथा चतुर्थ शिलालेख में जीव हिंसा का निषेध किया गया है ।इसी प्रकार प्राणियों के प्राणों का आदर, विद्यार्थियों द्वारा आचार्य की सेवा एवं जाति भाईयों के साथ उचित व्यवहार का संदेश भी इन अभिलेखों में उत्कीर्ण है।
अशोक के अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि वह प्रजा को अपनी संतान मानता था। प्रजाहित को वह सर्वाधिक महत्त्व देता था। कलिंग अभिलेख में कहा गया है कि "मेरी प्रजा मेरे बच्चों के समान है और मैं चाहता हूँ कि सबको इस लोक तथा परलोक में सुख तथा शान्ति मिले। छठे शिलालेख में अशोक ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा है - सर्व लोक हित मेरा कर्तव्य है, ऐसा मेरा मत है। यथा - कतव्यमते हि मे सर्वलोकहितं । नास्ति हि कंमतरं सर्वलोकहितत्पा।
(छठा शिलालेख) उसने यात्रियों के लिए छायादार पेड़ लगवाये, कुएँ खुदवाए, सरायें बनवाईं, रोगी मनुष्य व पशुओं के लिए चिकित्सा का पूरा प्रबंध किया। जहाँ औषधियाँ नहीं थीं, वहाँ लाई गई व रोपी गई। यथा --
ओसुडानि च यानि मनुसोपगानि च पसोपगानि च यत यत नास्ति, सर्वत्रा हारापितानि च रोपापितानि च । (दूसरा शिलालेख) __ इन सब कार्यों के पीछे उसका यही अभिप्राय था कि लोग धर्म के प्रति आकर्षित हों और धर्म का आचरण करें। धार्मिक महत्त्व
अशोक के अभिलेखों का धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्व है। धर्म को उसने सर्वोत्कृष्ट मंगल कहा है। धर्मदान, धर्मउदारता एवं धर्ममित्रता