SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अशोक ने गिरनार, कालसी, धौली, जौगढ़ एवं मनसेहरा आदि स्थानों पर अनेक लेख उत्कीर्ण कराए हैं। सम्राट अशोक के कुछ लेख शिलालेख हैं, कुछ स्तम्भ लेख और कुछ गुफा लेख हैं। अशोक के मुख्य शिलालेखों की संख्या चौदह हैं। अशोक के इन चतुर्दश शिलालेखों का एक समूह सौराष्ट्र में जूनागढ (गिरनार का मध्यकालीन नाम) से लगभग एक मील की दूरी पर गिरनार की पहाड़ियों पर स्थित है। यह अभिलेख जिस शिला पर उत्कीर्ण है, वह शिला त्रिभुजाकार ग्रेनाइट पत्थर की है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 100 वर्गफुट है। शिलाखण्ड के उत्तरपूर्वीय मुख पर अशोक के चतुर्दश शिलालेख दो स्तम्भों में विभाजित होकर उत्कीर्ण हैं। दोनों स्तम्भों के बीच में एक रेखा भी खिंची हुई है। बायीं ओर के स्तम्भ में प्रथम पाँच अभिलेख और दायीं ओर के स्तम्भ में छठवें से लेकर बारहवाँ तक उत्कीर्ण हैं। त्रयोदश व चतुर्दश अभिलेख पंचम तथा द्वादश के नीचे खुदे हुए हैं। अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी प्राकृत है, जो पालि के अधिक निकट है। कहीं कहीं संस्कृत के रूपों का भी समावेश है। लिपि की दृष्टि से ब्राह्मी व खरोष्ठी दोनों का ही प्रयोग हुआ है। शाहबाजगढ़ी और मनसेहरा के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं तथा शेष लेख ब्राह्मी में हैं। अशोक के ये शिलालेख भारतीय साहित्य में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे न केवल अशोक के व्यक्तिगत जीवन का परिचय मिलता है, अपितु तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि स्थितियों की जानकारी भी प्राप्त होती है। व्यक्तिगत महत्त्व अशोक के शिलालेखों से उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में पता चलता है कि वे बहुत से भाई-बहिन थे। उसकी कम से कम दो रानियाँ थी, क्योंकि प्रयाग स्तम्भ लेख में राजकुमार तीवर की माता कारुवाकी को द्वितीय रानी कहा है। उसके एक पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा थी। इन अभिलेखों से यह भी स्पष्ट होता है कि कलिंग को जीतने के बाद लाखों लोगों की हिंसा को देखकर अशोक को अत्यधिक अनुताप हुआ और उसके बाद वह पूर्णतः बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त हुआ।
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy