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शौरसेनी आगम साहित्य मथुरा से प्राप्त शिलालेखों से यही प्रमाण मिलता है कि ईसा की पहली शताब्दी तक दिगम्बर व श्वेताम्बर परम्परा भेद का आविर्भाव नहीं हुआ था। दोनों सम्प्रदायों के उपलब्ध प्राचीन साहित्य में भी कई समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। उत्तराध्ययन व मूलाचार की अनेक गाथाओं के विषय अक्षरशः समान हैं, किन्तु ई. सन् की पहली शताब्दी के पश्चात् अचेलत्व के प्रश्न को लेकर एवं आगमों को स्वीकारने के सम्बन्ध में दोनों सम्प्रदायों की मान्यताएँ अलग-अलग हो गई। दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्वादशांगी का विच्छेद हो गया है, केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश शेष है, जो षट्खण्डागम और कषायपाहुड नामक ग्रन्थों में मौजूद है। षट्खण्डागम व कषायपाहुड की गणना इस परम्परा में आगम ग्रन्थों के रूप में ही की जाती है। इनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है। इन प्रमुख ग्रन्थों के साथ-साथ आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ एवं शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध मूलाचार, भगवती आराधना आदि अन्य प्राचीन ग्रन्थ भी आगम तुल्य माने जाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में शौरसेनी साहित्य पर विशेष प्रकाश डाला है। उन्हीं के आधार पर शौरसेनी आगम साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। छक्खंडागमो
वीर निर्वाण के लगभग 683 वर्ष बाद मौखिक रूप से गुरु-शिष्य परम्परा में प्रवाहित आगम ज्ञान राशि धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी। द्वादशांगी का थोड़ा अंश आचार्य धरसेन को स्मरण था। वे चौदह पूर्वो में द्वितीय पूर्व के महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ पाहुड के विज्ञाता थे। उन्होंने यह सोचकर कि यह श्रुतज्ञान कहीं विलुप्त न हो जाय, अतः महिमानगरी में होने वाले मुनि सम्मेलन को पत्र भेजकर समर्थ साधक भेजने का अनुरोध किया। फलस्वरूप ज्ञान ध्यान में अनुरक्त, प्रज्ञावान पुष्पदंत व भूतबलि नामक दो साधु वहाँ पहुँचे । परीक्षा लेने के पश्चात् आचार्य धरसेन