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अपितु जैनेतर दार्शनिक परम्पराओं का भी समुचित आकलन मिलता है। सांस्कृतिक दृष्टि से तत्कालीन, सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक, ज्योतिषिक आदि तथ्यों का इनमें विस्तार से निरूपण हुआ है। साहित्य, भाषा-विज्ञान एवं व्याकरण के अध्ययन की दृष्टि से भी ये ग्रन्थ उपयोगी हैं। टब्बा एवं लोक भाषा में लिखित साहित्य
इस प्रकार संस्कृत व प्राकृत भाषाओं में विराट टीका साहित्य लिखा गया, किन्तु टीकाओं व व्याख्याओं की भाषा संस्कृत-प्राकृत प्रधान होने के कारण जन-साधारण के लिए उन्हें समझ पाना बहुत कठिन था। अतः इन दोनों भाषाओं से अनभिज्ञ जन-साधारण को समझाने हेतु आगे चलकर हिन्दी व लोकभाषाओं में सरल, सुबोध एवं संक्षिप्त टीकाएँ लिखी गई। ये टीकाएँ शब्दार्थ प्रधान थीं। इनमें पार्श्वचन्द्रगणि (16वीं शताब्दी) की आचारांग व सूत्रकृतांग पर बालावबोध रचनाएँ प्रमुख हैं। इसके पश्चात् 18वीं शताब्दी में मुनि धर्मसिंहजी ने करीब 27 आगमों पर टब्बे लिखे, जो साधारण व्यक्ति के लिए आगमों के अर्थ को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए। इस टब्बा युग के बाद अनुवाद युग का प्रारम्भ हुआ। इस युग में विभिन्न आचार्यों एवं विद्वानों द्वारा मुख्य रूप से अंग्रेजी, हिन्दी व गुजराती में आगमों का अनुवाद किया गया।
इस प्रकार आगमिक गूढ़ सूत्रों के गंभीर रहस्यों को समझाने हेतु समय-समय पर युग के अनुकूल आगमों पर विराट व्याख्या-साहित्य लिखा जाता रहा। इस व्याख्या-साहित्य द्वारा जहाँ एक ओर आगमों की दुरूह व गूढ़ बातों को समझना आसान हुआ, वहीं दूसरी ओर इस विराट साहित्य में प्रयुक्त कथाएँ तथा दृष्टांत ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। वस्तुतः यह विशाल साहित्य हमारी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत है।