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उसकी साधना की विशेष विधियों का निरूपण हुआ है। तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक जैन-विज्ञान का सुन्दर एवं संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। संस्तारक प्रकीर्णक में अन्तिम समय में आराधना करने के लिए संस्तारक को श्रेष्ठ बताया है। गच्छाचार में जैन संघ-व्यवस्था एवं गच्छ में रहने वाले आचार्य तथा साधु-साध्वियों के आचार का वर्णन है। धर्म व आचार के साथ-साथ कुछ ग्रन्थों में देवविमान, खगोल विज्ञान, ज्योतिष और निमित्त सम्बन्धी अनेक बातों पर भी प्रकाश डाला गया है। देवेन्द्रस्तव में कल्पोपन्न और कल्पातीत देवों आदि का वर्णन हुआ है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में विभिन्न द्वीप व सागरों की संरचना का वर्णन हुआ है। गणिविद्या प्रकीर्णक ज्योतिष का ग्रन्थ है, जिसमें दिवस-तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह-दिवस, शकुन, लगन, निमित्त आदि का विवेचन है। वीरस्तव प्रकीर्णक में भगवान् महावीर की स्तुति उनके 26 नामों द्वारा की गई है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनधर्म के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, जो साधना की दृष्टि से अंग आगम साहित्य की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। छेदसूत्र
. छेदसूत्र जैन आचार की कुंजी हैं, जैन संस्कृति की अद्वितीय निधि हैं, जैन साहित्य की गरिमा हैं। छेदसूत्रों में श्रमणों की आचार-संहिता का प्रतिपादन किया गया है। विशुद्ध आचार-विचार को समझने के लिए छेदसूत्रों का अध्ययन आवश्यक है। श्रमण जीवन की पवित्रता को बनाये रखने वाले ये उत्तम श्रुत हैं। दैनिक जीवन में अत्यन्त सावधान रहने पर भी दोष लगना स्वाभाविक है। छेदसूत्रों में उन दोषों की सूची व उसके लिये दिये गये प्रायश्चित्त का विधान है। वस्तुतः छेदसूत्रों का उद्देश्य विभिन्न देशकाल में होने वाले साधु-साध्वियों की परिस्थिति वश उलझी समस्याओं का निराकरण करना तथा मोह, अज्ञान एवं प्रमाद के कारण सेवित दोषों से संयम की रक्षा करना है। इस दृष्टि से छेदसूत्रों की विषयवस्तु को चार विभागों में बाँटा गया है- 1. उत्सर्गमार्ग 2. अपवादमार्ग 3. दोष सेवन 4. प्रायश्चित्त विधान। मूलसूत्रों की तरह छेदसूत्रों की संख्या को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं। समाचारीशतक में समयसुन्दरगणि ने छेदसूत्रों की संख्या छः बताई है। 1. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. व्यवहार,