SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3 अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों का परिचय अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थ विभिन्न स्थानों से हिन्दी, गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित हुए हैं । इन आगम ग्रन्थों को आलोडन व मंथन कर विभिन्न विद्वानों एवं आचार्यों द्वारा समय-समय पर उनकी समीक्षा भी प्रस्तुत की गई है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर अर्धमागधी आगम साहित्य का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। अंग अर्थ रूप में तीर्थंकर प्ररूपित तथा सूत्र रूप में गणधर ग्रथित वाङ्मय अंग वाङ्मय के रूप में जाना जाता है। जैन परम्परा में 'अंग' का प्रयोग द्वादशांग रूप गणिपिटक के अर्थ में हुआ है - दुवालसंगे गणिपिडगे (समवायांग) नंदीसूत्र की चूर्णि में श्रुतपुरुष की सुन्दर कल्पना करते हुए पुरुष के शरीर के अंगों की तरह श्रुतपुरुष के बारह अंगों को स्वीकार किया गया है— इच्चेतस्स सुत्तपुरिसस्स जं सुत्तं अंगभागगठितं तं अंगपविद्वं भइ । ( नन्दी चूर्ण, पृ. 47 ) इस प्रकार अंगों की संख्या बारह स्वीकार की गई है। वर्तमान में दृष्टिवाद के लुप्त हो जाने के कारण 11 अंग ही उपलब्ध हैं। इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आयारो द्वादशांगी में आचारांग का प्रथम स्थान है। आचारांग नियुक्ति में आचारांग को अंगों का सार कहा गया है अंगाणं किं सारो ! आयारो । (गा. 16 ) नियुक्तिकार भद्रबाहु ने लिखा है कि तीर्थंकर भगवान् सर्वप्रथम आचारांग का और उसके पश्चात् शेष अंगों का प्रवर्तन करते हैं । प्रस्तुत आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 9 अध्ययन हैं, लेकिन महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के लुप्त हो जाने के कारण 27 —
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy