________________
तथा दिगम्बर परम्परा वीरनिर्वाण के 162 वर्ष बाद भद्रबाहु का स्वर्गवास काल मानती है। भद्रबाहु के स्वर्गवास के बाद चतुर्दशपूर्वधर आचार्यों का लोप हो गया। केवल दशपूर्वधर आचार्य रह गये। दशपूर्वधर आचार्यों की परम्परा स्थूलिभद्र से आचार्य वज्रस्वामी तक चली। वे वीरनिर्वाण संवत् 551 में स्वर्ग सिधारे। इसके बाद दशपूर्वधर आचार्य भी नहीं रहे। मालवणियाजी ने अपनी पुस्तक में यह माना है कि आचार्य वज्रसेन का स्वर्गवास वीर निर्वाण के 584 वर्ष बाद हआ और तभी से दसपूर्वो का विच्छेद हो गया। दिगम्बर परम्परा यह स्वीकार करती है कि अन्तिम दसपूर्वो के ज्ञाता आचार्य धर्मसेन हुए हैं तथा वीर निर्वाण के 345 वर्ष बाद दशपूर्वधर आचार्य नहीं रहे। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में चतुर्दशपूर्वधर व दशपूर्वधर दोनों का ही विच्छेद क्रम श्वेताम्बर परम्परा से पहले ही स्वीकार किया गया है। आगम वाचनाएँ
भगवान् महावीर ने अर्थरूप में जो उपदेश दिये, गणधरों ने उन्हें सूत्ररूप में गूंथा और इस तरह जैन वाङ्मय की परम्परा का प्रारम्भ हुआ। यह ज्ञानराशि मौखिक रूप से गुरु परम्परा से शिष्यों को प्राप्त होती रही। धीरे-धीरे समय, काल व परिस्थितियों के अनुसार इन्हें याद रखना कठिन हो गया और आगमों का विच्छेद क्रम प्रारम्भ हो गया। अतः आगमों को सुरक्षित रखने के लिए समय-समय पर श्रमणों द्वारा विभिन्न सम्मेलन बुलाये गये तथा उन्हें लिखित रूप प्रदान किया गया। आज जो आगम ग्रन्थ हमें उपलब्ध हैं, वे इन्हीं वाचनाओं का परिणाम हैं। प्रथम वाचना - वीर निर्वाण के 160 वर्षों बाद पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा, जिसके कारण श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक बहुश्रुतधर श्रमण आयु पूर्ण कर गये। ऐसी स्थिति में जैन संघ को अपने साहित्य की चिन्ता हुई। अकाल की समाप्ति के पश्चात् श्रमणसंघ आचार्य स्थूलिभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में इकट्ठा हुआ। वहाँ पर स्मृति के आधार पर एकादश अंगों को व्यवस्थित किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद किसी को भी स्मरण नहीं था, अतः उसका संग्रह नहीं किया जा सका । बाद में भद्रबाहु द्वारा स्थूलिभद्र को दसपूर्वो की अर्थ सहित तथा शेष चार पूर्वो की शब्दरूप वाचना दी गई।