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शब्द ज्ञान का समावेश हो जाता है, तथापि ग्यारह अंगो की रचना अल्प मेधावी पुरुषों और महिलाओं के लिए की गई। जो श्रमण प्रबल प्रतिभा के धनी होते थे, वे पूर्वो का अध्ययन करते थे और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता नहीं होती थी, वे ग्यारह अंगों का अध्ययन करते थे। आगम साहित्य में पूर्वो का अध्ययन करने वाले तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाले दोनों ही प्रकार के साधकों का वर्णन मिलता है। जब तक आचारांग आदि ग्रन्थों की रचना नहीं हुई थी, उससे पहले रचे गये चतुर्दशशास्त्र चौदह पूर्व के नाम से विख्यात हुए। पूर्व ज्ञान के आधार पर द्वादशांगी की रचना हुई, फिर भी पूर्वज्ञान को छोड़ देना संभवतः आचार्यों को ठीक प्रतीत नहीं हुआ। अतः बारहवें अंग दृष्टिवाद में उस ज्ञान को सन्निविष्ट कर दिया गया। दृष्टिवाद पाँच भागों में विभक्त है - 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वानुयोग 4. पूर्व 5. चूलिका। चौथे विभाग पूर्व में 'चौदह पूर्व के ज्ञान का समावेश है। इस दृष्टि से जो चतुर्दशपूर्वी होते हैं, वे द्वादशांगी के ज्ञाता भी होते हैं। इस प्रकार अंग साहित्य की रचना के बाद चौदह पूर्वो को बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' का नाम दे दिया गया। दुर्भाग्यवश यह पूर्व साहित्य सुरक्षित नहीं रहा। समस्त चौदह पूर्वो के अन्तिमज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। इनके बाद पूर्व श्रुत का विच्छेद प्रारंभ हो गया। आगम-विच्छेद क्रम
वस्तुतः भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद आगमों की मौखिक परम्परा ही चलती रही। धीरे-धीरे योग्य शिष्यों के अभाव में तथा अनेक प्राकृतिक आपदाओं के कारण धर्मशास्त्रों का स्वाध्याय करना दुष्कर हो गया और आगमों का क्रमशः विच्छेद होना प्रारम्भ हो गया। वस्तुस्थिति यह है कि द्वादशांगी का बहुत बड़ा भाग काल के दुष्प्रभाव से लुप्त हो चुका है। श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ इस बात को एक मत से स्वीकार करती हैं कि अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी थे, जो चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता थे। इनके समय में भयंकर अकाल पड़ा तथा जैन मत भी श्वेताम्बर व दिगम्बर दो भागों में विभाजित होने लगा। इसके साथ ही आगमों का विच्छेद क्रम प्रारंभ हो गया। श्वेताम्बर परम्परा वीरनिर्वाण के 170 वर्ष बाद