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प्रथम युगीन प्राकृत ( आदि युग )
ई.पू. 600 से ई. सन् 200 तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य निबद्ध किया गया, वह प्रथम युगीन प्राकृत कहलाई । इन 800 वर्षों में प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य रचा गया । लोकभाषा परिवर्तनशील होती है। उसमें स्थान व काल के अनुसार विविधताएँ और परिवर्तन आते रहते हैं, फिर भी मूल भाषागत विशेषताएँ प्रायः समान ही रहती हैं। अतः महावीर युग से प्रारम्भ होकर अश्वघोष के नाटकों तक जो भी साहित्य इस भाषा में रचा गया, उसकी भाषा में प्रायः एकरूपता ही है। प्रथम युगीन प्राकृत में सर्वाधिक प्राचीन साहित्य उपलब्ध है। इसका वर्गीकरण इस प्रकार है
(1) आर्ष प्राकृत (2) शिलालेखी प्राकृत ( 3 ) निया प्राकृत (4) प्राकृतधम्मपद की प्राकृत (5) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत ।
आर्ष प्राकृत
आर्ष प्राकृत से तात्पर्य बौद्ध व जैन सूत्रों की भाषा से है। प्राचीनता तथा दो महापुरुषों द्वारा प्रयुक्त किये जाने के कारण यह आर्ष प्राकृत या ऋषि भाषा कहलाई । यद्यपि द्वितीय स्तरीय प्राकृत का सबसे प्राचीन लिखित साहित्य शिलालेखी प्राकृत में मिलता है, किन्तु शिलालेख लिखे जाने से पूर्व ही बुद्ध व भगवान् महावीर ने धार्मिक प्रचार के लिए अपने उपदेशों में जनभाषा प्राकृत का प्रयोग किया, जिनका संकलन बाद में त्रिपिटकों व आगमों के रूप में किया गया । भगवान् बुद्ध के उपदेशों की भाषा पालि व भगवान् महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी कहलाई । इस दृष्टि से पालि, अर्धमागधी आदि आगमिक प्राकृत भाषाओं को शिलालेखी प्राकृत से प्राचीन स्वीकार किया जा सकता है। आर्ष प्राकृत के तीन भेद हैं। (क) पालि (ख) अर्धमागधी (ग) शौरसेनी
(क) पालि
भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं । इन त्रिपिटकों की भाषा पालि है। पालि भाषा का गठन तत्कालीन विभिन्न लोक - बोलियों के मिश्रण से हुआ है, जिनमें