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का निरूपण इस ग्रन्थ की अपनी मौलिक विशेषता है। त्रिविक्रम ने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। इस व्याकरण पर लक्ष्मीधर की षड्भाषाचन्द्रिका तथा सिंहराज की प्राकृतरूपावतार, ये दो टीकाएँ भी प्राप्त होती हैं। संक्षिप्तसार
प्राकृत वैयाकरणों में संक्षिप्तसार के रचयिता क्रमदीश्वर का नाम अग्रणीय है। क्रमदीश्वर का समय लगभग 12वीं-13वीं शताब्दी माना गया है। इस व्याकरण-ग्रन्थ में 8 अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण तथा आठवें अध्याय 'प्राकृतपाद' में प्राकृत व्याकरण का विवेचन किया गया है। संक्षिप्तसार पर क्रमदीश्वर ने स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। प्रस्तुतीकरण व सामग्री की दृष्टि से यह व्याकरण हेमचन्द्र के व्याकरण-ग्रन्थ से पर्याप्त भिन्नता रखता है। वस्तुतः यह ग्रन्थ वररुचि के प्राकृतप्रकाश के अधिक निकट प्रतीत होता है। प्राकृतसर्वस्व
प्राकृतसर्वस्व के कर्ता मार्कण्डेय उड़ीसा के निवासी थे। इनका समय 1490-1565 ई. स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में 20 पाद हैं, जिनमें भाषा, विभाषा, अपभ्रंश व पैशाची का अनुशासन किया है। भाषा में महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती व मागधी को सम्मिलित किया है। विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शाबरी, आभीरी व ढक्की ये पाँच भेद किये गये हैं। अपभ्रंश के नागर, ब्राचड व उपनागर तथा पैशाची के कैकई, शौरसेन व पांचाली भेद करते हुए उनका अनुशासन किया है।
इस ग्रन्थ में प्रारम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बताये हैं। नौवें में शौरसेनी, दसवें में प्राच्या, ग्यारहवें में अवन्ती और वाल्हीकी एवं बारहवें में मागधी, अर्धमागधी का अनुशासन किया है। तेरहवें से सोलहवें पाद तक विभाषा का, सत्रहवें और अठारहवें में अपभ्रंश भाषा का तथा उन्नीसवें और बीसवें पाद में पैशाची का नियमन किया है। इस प्रकार मार्कण्डेय ने अपने समय तक की विकसित समस्त लोक भाषाओं का व्याकरण अपने इस ग्रन्थ में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस ग्रन्थ की महत्ता को स्थापित करते हुए डॉ. पिशल ने लिखा है कि,