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________________ देता हूँ तथापि हे श्वेत दाँतों वाली! तुम मुझ सेवक को नहीं चाहती हो। मनुष्य बड़े ही कष्टमय हैं। श्रीहर्ष के नाटक ___ महाकवि श्री हर्ष (ई. सन् 600-648) ने प्रियदर्शिका एवं रत्नावली नाटिकाओं में तथा नागानंद नाटक में प्राकृत भाषा का पूरा प्रयोग किया है। प्रियदर्शिका एवं रत्नावली नाटिकाओं में स्त्री पात्रों की संख्या अधिक है। अतः इन दोनों ही रचनाओं में संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का प्रयोग अधिक है। स्त्रियाँ, नौकर, विदूषक आदि पात्र प्राकृत ही बोलते हैं। नागानंद नाटक में संस्कृत की प्रधानता है, किन्तु इसमें भी विदूषक, चेटी, नायिका, मलयवंती आदि पात्र प्राकृत भाषा का ही प्रयोग करते हैं। श्रीहर्ष ने अपनी नाट्य रचनाओं में पद्य में महाराष्ट्री के साथ-साथ शौरसेनी का भी प्रयोग किया है। रत्नावली की यह पंक्ति दृष्टव्य है - दुल्लहजणअणुराओ लज्जा गुरुई परवसो अप्पा । ( 2.1) अर्थात् – व्यक्ति के लिए प्रेम की सुरक्षा दुर्लभ है। परवश आत्मा गहरी लज्जा है। भवभूति के नाटक ई. सन् की सातवीं शताब्दी में भवभूति ने महावीर चरित, मालतीमाधव एवं उत्तररामचरित नाटकों की रचना की। इन तीनों ही नाटकों में संस्कृत की ही प्रधानता है, किन्तु नियमानुसार उन्होंने इन रचनाओं में शौरसेनी प्राकृत का भी प्रयोग किया है। उपर्युक्त प्रसिद्ध संस्कृत नाटककारों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य नाटक भी मिलते हैं, जिनमें पात्रानुसार प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है। . विशाखदत्त (ई. सन् नौंवी शताब्दी) ने मुद्राराक्षस में शौरसेनी, महाराष्ट्री एवं मागधी का प्रयोग किया है। भट्टनारायण (ई. सन् आठवीं शताब्दी के पूर्व) के वेणीसंहार में शौरसेनी की प्रधानता मिलती है। कहीं-कहीं मागधी का भी प्रयोग है। सोमदेव द्वारा बारहवीं शताब्दी में लिखे गये ललितविग्रहराज में महाराष्ट्री, शौरसेनी व मागधी का प्रयोग मिलता है। 17वीं शताब्दी में
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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