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पूर्वभवों के वर्णन में भवदेव के भव का वर्णन अत्यंत रोचक है, जिसमें तपस्वी हो जाने पर भी भवदेव अपनी नव-विवाहिता पत्नी नागिला को स्मरण करता रहता है। इस काव्य का मूल उद्देश्य जीवन की चिरन्तन समस्याओं पर प्रकाश डालना तथा सांसारिक दुःख व संतापों से निवृत्ति प्राप्त करना है। जंबूकुमार द्वारा अपनी नव-विवाहित आठ रानियों को संसार की नश्वरता का परिज्ञान कराने वाली दृष्टान्त कथाएँ सरस एवं शिक्षाप्रद हैं। उनके माध्यम से जैन दर्शन के सिद्धान्तों, आचार-व्यवहार आदि का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। धार्मिक वातावरण से व्याप्त यह ग्रन्थ काव्यात्मक सरसता को भी लिए हुए है । उपदेशों को भी वक्रोक्तियों द्वारा सरस बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है। यथा
उवयारसहस्सेहिं वि, वंकं को तरड़ उज्जुयं काउं ।
सीसेण वि वुब्धंतो, हरेण वंको वि मंयको ।। (गा. 15.34 ) अर्थात् हजारों उपकार करने के द्वारा भी टेढ़े व्यक्ति को सीधा करने में कौन समर्थ हो सकता है? जैसे शिव द्वारा सिर पर धारण किये जाने पर भी चन्द्रमा टेढ़ा ही रहता है ।
सुरसुन्दरीचरियं
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सुरसुन्दरीचरित की रचना जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि ने वि. सं. 1095 में की है । यह ग्रन्थ 16 परिच्छेदों में विभक्त है तथा प्रत्येक परिच्छेद में 250 पद्य हैं । प्रेमाख्यान प्रधान इस चरित महाकाव्य में नायिका सुरसुन्दरी का जीवन-चरित विस्तार से वर्णित है । नायिका सुरसुंदरी के चरित का विकास क्रमशः दिखाया गया है। आरंभ में नायिका का श्रांगारिक प्रेम, जीवन के आमोद-प्रमोद तथा अन्त में विरक्ति एवं तपश्चरण का विवेचन हुआ है । नायिका के चरित का विकास दिखाने हेतु मूल कथा के साथ-साथ अनेक प्रासंगिक कथाओं को भी समाहित किया है । लेखक ने धार्मिक भावनाओं के साथ-साथ मानव जीवन की मूलवृत्तियों प्रेम, काम-वासना, राग-विराग के संघर्ष आदि का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। धार्मिक व दार्शनिक सिद्धान्तों को विवेचित करने वाला यह ग्रन्थ अपने काव्यात्मक वर्णनों के कारण अत्यंत ही सरस एवं सजीव