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चौवन शलाका महापुरुषों का जीवन-चरित लिखा है। स्वतंत्र रूप से भी प्राकृत में अनेक चरितकाव्यों की रचना हुई है। विमलसूरि का पउमचरियं, वर्धमानसूरि का आदिनाथचरियं, सोमप्रभसूरि का सुमतिनाथचरियं आदि अनेक चरितकाव्य प्राकृत में लिखे गये हैं। तीर्थकर आदि महापुरुषों के अतिरिक्त जैन धर्म के श्रेष्ठ उन्नायक महान आचार्यों के चरित भी जैन विद्वानों ने लिखे हैं, जिनमें युगप्रधान जिनदत्तसूरि का गणधरसार्द्धशतक प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में अभयदेव, उद्योतनसूरि, वजस्वामी, उमास्वाति आदि अनेक आचार्यों के जीवन चरित का निरूपण किया गया है। लोकजीवन से ख्याति प्राप्त महनीय चरित से प्रेरित होकर अपनी कल्पना के आधार पर कल्पित जीवन-चरित की रचना भी जैनाचार्यों द्वारा की गई है। प्राकृत भाषा में लिखे गये चरितकाव्यों में पौराणिकता के साथ-साथ लोक-तत्त्वों का भी प्रचुरता से समावेश हुआ है। वे जीवन के अनेक पक्षों के साथ-साथ प्रधान रूप से धार्मिक जीवन का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। मनोरंजन व काव्यात्मक सरसता का भी उनमें पूर्ण समावेश हुआ है। चरितकाव्य का स्वरूप
चरितकाव्य प्रबंध काव्यों का ही एक रूप है, जिसमें पौराणिकता व ऐतिहासिकता के साथ-साथ लोक तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में विद्यमान होते हैं। चरितकाव्य में नायक के चरित में विभिन्न परिस्थितियों का विनियोजन इस प्रकार किया जाता है, जिससे उसका चरित क्रमशः विकसित होता चला जाता है। चरितकाव्य का रचयिता चरित्र के उद्घाटन के लिए किसी भी व्यक्ति के जीवन की आवश्यक घटनाओं को ही चुनता है, परन्तु जीवन की समग्रता का चित्रण करने के लिए वह अपनी कल्पना शक्ति से जीवन के अन्य व्यापारों का भी चित्रण करता है। चरितकाव्य के प्रारूप में कथा एवं काव्य दोनों के ही तत्त्व मिश्रित होते हैं। घटना-विन्यास एवं कौतूहल तत्त्व कथा या आख्यानों से ग्रहण किये जाते हैं तथा रसानुभूति के तत्त्व काव्यों से लिये जाते हैं। इस दृष्टि से घटना-विन्यास एवं काव्यात्मक वर्णन दोनों का समन्वय ही चरितकाव्य की आधारशिला होती है। कथावस्तु के साधारण विवेचन से चरितकाव्य कथा बन जाता है तथा नायक का अस्वाभाविक एवं दैविकरूप उसे पुराण बना देता है। अतः चरित काव्य की