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कुमारवालपडिबोहो
सोमप्रभसूरि ने वि.सं. 1241 में महाराष्ट्री प्राकृत में कुमारपालप्रतिबोध ग्रन्थ की रचना की थी । प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच प्रस्ताव हैं । पाँचवां प्रस्ताव अपभ्रंश में है । इस ग्रन्थ में गुजरात के राजा कुमारपाल का चरित्र वर्णित है । राजा कुमारपाल आचार्य हेमचन्द्र के उपदेशों से प्रभावित होकर जैन धर्म को अंगीकार करते हैं । उनको प्रदान की गई शिक्षाओं के दृष्टांतों के रूप में इस ग्रन्थ में कई कथानक गुम्फित हुए हैं। श्रावक के 12 व्रतों एवं उनके अतिचारों के रहस्यों को अवगत कराने के लिए विभिन्न लघु कथानक आए हैं। तीसरे प्रस्ताव में शीलव्रत का पालन करने वाली शीलवती की कथा उपदेशप्रद एवं मनोरंजक है । द्यूतक्रीड़ा के दोष को दिखलाने के लिए नल की कथा आई है। इन लघु कथाओं के माध्यम से व्यक्ति के नैतिक उत्थान एवं चारित्रिक विकास का प्रबल प्रयास किया गया है । उपदेश तत्त्व एवं धार्मिक वातावरण की प्रधानता होते हुए भी काव्यात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह ग्रन्थ अद्वितीय है । दमयंती के स्वयंवर प्रसंग की यह गाथा दृष्टव्य है, जहाँ रूपक व अनुप्रास अलंकार का माधुर्य एक साथ प्रस्फुटित हुआ है -
कलयंठकंठि! कंठे कलिंगवइणो जयस्स खिव मालं । करवालराहुणा जस्स कवलिया वेरि-जस - ससिणो ॥
(प्रथम प्रस्ताव )
अर्थात् हे कोयलकंठी! कलिंगपति जय के गले में माला डाल, जिसकी तलवार रूपी राहू के द्वारा वेरी रूपी चन्द्रमा ग्रसित किया गया है।
इन प्रमुख कथा-ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा में अनेक कथा - ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। जिनहर्षसूरि ( 15वीं शताब्दी) का रयणसेहरनिवकहा एक प्रेमकथानक है, जिसके आधार पर जायसी ने पद्मावत की रचना की । 12वीं शताब्दी में आचार्य सुमतिसूरि ने जिनदत्ताख्यान की रचना की । वर्धमानसूरि द्वारा सन् 1083 में लिखित मनोरमाकहा एक सरस कथा ग्रन्थ है । 12वीं शताब्दी में संघतिलक आचार्य ने आरामसोहाकहा की रचना की, जो एक विशुद्ध लौकिक कथा है । आधुनिक समय में भी अनेक कथाग्रन्थों
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