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यद्यपि इस कथा - ग्रन्थ में गुणसेन व अग्निशर्मा के नौ भवों की कथा वर्णित है, किन्तु प्रत्येक भव की कथा स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए है। मूल कथा के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी शामिल हैं। धर्म-दर्शन प्रधान यह ग्रन्थ सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। तत्कालीन समाज व संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण पहलू इसमें उजागर हुए हैं। तत्कालीन विभिन्न जातियों, पारिवारिक गठन, उत्सव, विवाह-प्रथा, दास-प्रथा, शिक्षा-पद्धति, भोजन, वस्त्राभूषण, व्यापारी और सार्थवाहों के व्यापारिक नियम, नगर-ग्राम की स्थिति आदि के विविध रूप इसमें वर्णित हैं ।
धुत्तक्खाण
आचार्य हरिभद्र की धूर्त्ताख्यान लाक्षणिक शैली में लिखी गई व्यंग व उपहास प्रधान रचना है। इस कथा - ग्रन्थ में आचार्य ने पाँच धूर्तों के काल्पनिक व असंभव आख्यानों के माध्यम से अविश्वसनीय तथा असंभव बातों की मनोरंजक प्रस्तुति करते हुए उनके निराकरण का सशक्त प्रयास किया है। वस्तुतः सरस शैली में व्यंग व सुझावों के माध्यम से असम्भव व मनगढ़न्त बातों, अन्धविश्वासों, अमानवीय तत्त्वों, जातिवाद आदि को त्यागने का संदेश दिया है। पाँच धूर्तों के आख्यानों में अंत में स्त्री खंडपाना की विजय दिखाकर नारी के अन्नपूर्णा रूप के साथ-साथ बौद्धिक रूप को भी दर्शाया है। प्राचीन भारत में गिरे हुए नारी - समाज को उठाने का यह सुन्दर प्रयास है।
कुवलयमालाकहा
सन्
आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य दाक्षिणात्य उद्योतनसूरि ने ई. 779 में जालोर में कुवलयमालाकहा की रचना की है। यह कथा-ग्रन्थ गद्य-पद्य दोनों में लिखा गया है । अपनी इसी विशिष्ट शैली के कारण कई प्राकृत विद्वान इसे कथा - ग्रन्थ की श्रेणी में न रखकर 'प्राकृत चंपूकाव्य' की श्रेणी में रखते हैं, लेकिन स्वयं ग्रन्थकार उद्योतनसूरि ने इसे कथा --ग्रन्थ ही माना है । कुवलयमाला में मुख्य रूप से कुमार कुवलयचन्द व राजकुमारी कुवलयमाला की प्रणय कथा वर्णित है। इस कथा - ग्रन्थ में कवि ने अनेक नवीन उद्भावनाएँ कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है । विषय
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