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उत्प्रेक्षा, रूपक, काव्यलिंग, अलंकारों का सुन्दर नियोजन हुआ है। इस खण्डकाव्य पर कर्पूरमंजरी तथा अन्य संस्कृत काव्यों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
कुम्मापुत्तचरियं
कूर्मापुत्रचरित की गणना प्राकृत के चरितकाव्य तथा खण्डकाव्य दोनों में ही की जाती है । कवि अनंतहंस ने लगभग 16वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें 198 गाथाएँ हैं, जिनमें राजा महेन्द्रसिंह और उनकी रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के जीवन की कथा वर्णित है। कथा के प्रारम्भ में कूर्मापुत्र के पूर्वजन्म का वृत्तांत वर्णित है। मूल कथानक के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी गुम्फित हुई हैं । अवान्तर कथाएँ सरस व रोचक हैं। इन छोटी-छोटी कथाओं के माध्यम से तप, दान, दया, शील, भावशुद्धि आदि शुष्क उपदेशों को सरस बनाकर प्रस्तुत किया गया । दान, तप, शील व भाव के भेदों से धर्म को चार प्रकार का बताया है। भाव को सर्वश्रेष्ठ तथा मोक्ष प्रदान करने वाला कहा है । यथा
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दाणतवसीलभावणभेएहि चउव्विहो हवइ धम्मो । सव्वेसु तेसु भावो महप्पभावो मुणेयव्वो ।। (गा. 5 )
इन प्रमुख खंडकाव्यों के अतिरिक्त प्राकृत में मेघदूत के अनुकरण पर लिखा गया भृङ्गसंदेश भी प्राप्त होता है, जिसमें एक विरही व्यक्ति भृङ्ग के माध्यम से अपनी प्रिया के पास संदेश भेजता है । इसके कवि अज्ञात हैं !
सहायक ग्रन्थ
1. गाथा सप्तशती अ. डॉ. हरिराम आचार्य,
जयपुर
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प्राकृत
2. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग 6 ) चौधरी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
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भारती अकादमी,
ले. डॉ.
गुलाबचन्द्र