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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा सूत्रों के तलस्पर्शी अनुसंधाता थे। उन्होंने जिस विषय पर कलम उठाई उस विषय की अतल गहराई में उतर गये । ૪૭૪ बृहत्कल्प- लघुभाष्य बृहत्कल्प- लघुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है । लघुभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या ६४६० है । यह छह उद्देशों में विभक्त है । भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है जिसकी गाथा संख्या ८०५ है । इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलन - आकलन हुआ है । इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डा० मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में 'यात्री और सार्थवाह' का सुन्दर आकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम और औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दृष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है । पहले उद्देशक की व्याख्या में तालवृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल- प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता विधि-विधान, वैद्यों के आठ प्रकार बताए हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण श्रमणियों के एक-दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके १४४ भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है । ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर विवेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवर्धित मास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएँ, समयसरण, तीर्थंकर, गणधर, आहारक शरीरी, अनुत्तर देव, चक्रवर्ती, बलदेव,
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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