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३७० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा असंस्पृष्ट हैं, अपने दोषों की आलोचना कर शुद्धि करते हैं, तो उनके साथ समानता का व्यवहार करना कल्पता है। नहीं तो नहीं।
सातवें उद्देशक में यह विधान है कि साधु स्त्री को और साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे । यदि किसी ऐसे स्थान में किसी स्त्री को वैराग्य भावना जाग्रत हुई हो जहाँ सन्निकट में साध्वी न हो तो वह इस शर्त पर दीक्षा देता है कि वह यथाशीघ्र किसी साध्वी को सिपुर्द कर देगा। इसी तरह साध्वी भी पुरुष को दीक्षा दे सकती है।
जहाँ पर तस्कर, बदमाश या दुष्ट व्यक्तियों का प्राधान्य हो वहाँ श्रमणियों को विचरना नहीं कल्पता क्योंकि वहाँ पर वस्त्रादि के अपहरण व व्रतभंग आदि का भय रहता है। श्रमणों के लिए कोई बाधा नहीं है।
किसी श्रमण का किसी ऐसे श्रमण से वैर-विरोध हो गया है जो विकट दिशा (चोरादि का निवास हो ऐसा स्थान) में है तो वहाँ जाकर उससे क्षमायाचना करनी चाहिए, किन्तु स्वस्थान पर रहकर नहीं। किन्तु श्रमणी अपने स्थान से भी क्षमायाचना कर सकती है।
साधु-साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय के नियंत्रण के बिना स्वच्छन्द रूप से परिभ्रमण करना नहीं कल्पता।
आठवें उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि साधु एक हाथ से उठाने योग्य छोटे-मोटे शय्या संस्तारक, तीन दिन में जितना मार्ग तय कर सके उतनी दूर से लाना कल्पता है। किसी वृद्ध निर्ग्रन्थ के लिए आवश्यकता पड़ने पर पांच दिन में जितना चल सके उतनी दूरी से लाना कल्पता है। स्थविर के लिए निम्न उपकरण कल्पनीय हैं। दंड, भाण्ड, छत्र, मात्रिका, लाष्टिक (पीठ के पीछे रखने के लिए तकिया या पाटा) भिसि (स्वाध्यायादि के लिये बैठने का पाटा), चेल (वस्त्र), चेल-चिलिमिलिका (वस्त्र का पर्दा), चर्म, चर्मकोश (चमड़े की थैली), चर्म-पलिछ (लपेटने के लिए चमड़े का टुकड़ा)। इन उपकरणों में से जो साथ में रखने के योग्य न हों उन्हें उपाश्रय के समीप किसी गृहस्थ के यहाँ रखकर समय-समय पर उनका उपयोग किया जा सकता है।
किसी स्थान पर अनेक श्रमण रहते हों उनमें से कोई श्रमण किसी गहस्थ के वहाँ पर कोई उपकरण भूल गया हो और अन्य श्रमण वही पर गया हो तो गृहस्थ श्रमण से कहे कि यह उपकरण आपके समुदाय के संत का है तो संत उस उपकरण को लेकर स्वस्थान पर आये और जिसका उप