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अंगबाह्य आगम साहित्य ३६७ ना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त करने वाले साधु को गृहस्थलिंग धारण कराये बिना संयम में पुन: स्थापित नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका अपराध इतना महान् होता है कि बिना वैसा किये उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न अन्य श्रमणों के अन्तर्मानस में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है।
इसी प्रकार दसवें पारञ्चित प्रायश्चित्त वाले श्रमण को भी गहस्थ का वेष पहनाने के पश्चात् पुनः संयम में स्थापित करना चाहिए। यह अधिकार प्रायश्चित्तदाता के हाथ में है कि उसे गृहस्थ का वेष न पहनाकर अन्य प्रकार का वेष भी पहना सकता है।
पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमण एक साथ आहार करें, यह उचित नहीं है। पारिहारिक श्रमणों के साथ बिना तप पूर्ण हए अपारिहारिक श्रमणों को आहारादि नहीं करना चाहिए क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूर्ण होने के पश्चात् एक मास के तप पर पांच दिन और छह महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई आहार नहीं कर सकता क्योंकि उन दिनों में उनके लिए विशेष प्रकार के आहार की आवश्यकता होती है जो दूसरों के लिए आवश्यक नहीं।
तृतीय उद्देशक में बताया है कि किसी श्रमण के मानस में अपना स्वतंत्र गच्छ बनाकर परिभ्रमण करने की इच्छा हो पर वह आचारांग आदि का परिज्ञाता नहीं हो तो शिष्य आदि परिवारसहित होने पर भी पृथक् गण बनाकर स्वच्छन्दी होना योग्य नहीं। यदि वह आचारांग आदि का ज्ञाता है तो स्थविर से अनुमति लेकर विचर सकता है। स्थविर की बिना अनुमति के विचरने वाले को जितने दिन इस प्रकार विचरा हो उतने ही दिन का छेद या पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है।
उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है; निर्ग्रन्थ के आचार में निष्णात है; संयम में प्रवीण है; आचारांग आदि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है, आदि।
__ आचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के आचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प-बृहत्कल्प-व्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पाँच वर्ष का दीक्षित है।