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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा आलोचना आचार्य, उपाध्याय के समक्ष कर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिए। यदि वे अनुपस्थित हों तो अपने संभोगी, साधर्मिक, बहुश्रुत आदि के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि वे पास में न हों तो अन्य समुदाय के संभोगी, बहुश्रुत आदि श्रमण जहाँ हों वहाँ जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भी न हों तो सारूपिक ( सदोषी ) किन्तु बहुश्रुत साधु हों तो वहाँ जाकर प्रायश्चित्त लेना चाहिए । यदि वह भी न हों तो बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास और उसका भी अभाव हो तो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के पास जाकर प्रायश्चित्त करना चाहिए। इन सबके अभाव में गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा के सन्मुख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर अपने अपराध की आलोचना करे । द्वितीय उद्देशक में कहा है कि एक समान सामाचारी वाले दो सामिक साथ में हों और उनमें से किसी एक ने दोष का सेवन किया हो तो दूसरे के सन्मुख प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करने वाले की सेवा आदि का भार दूसरे श्रमण पर रहता है। यदि दोनों ने दोषस्थान का सेवन किया हो तो परस्पर आलोचना कर प्रायश्चित्त लेकर सेवा करनी चाहिए। अनेक श्रमणों में से किसी एक श्रमण ने अपराध किया हो तो एक को ही प्रायश्चित्त दे। यदि सभी ने अपराध किया है तो एक के अतिरिक्त शेष सभी प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करें और उनका प्रायश्चित्त पूर्ण होने पर उसे भी प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। ३६६ परिहारकल्पस्थित श्रमण कदाचित् रुग्ण हो जाय तो उसे गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता । जब तक वह स्वस्थ न हो जाय तब तक वैयावृत्य करवाना गणावच्छेदक का कर्त्तव्य है और स्वस्थ होने पर उसने सदोषावस्था में सेवा करवाई अतः उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए। इसी तरह अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं करना चाहिए। विक्षिप्तचित्त को भी गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता और जब तक उसका चित्त स्थिर न हो जाय तब तक उसकी पूर्ण सेवा करनी चाहिए तथा स्वस्थ होने पर नाममात्र का प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार दीप्तचित्त (जिसका चित्त अभिमान से उद्दीप्त हो गया है), उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण, सप्रायश्चित्त आदि को गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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