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अंग आगम साहित्य ३५५ कभी-कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा ७० कोटाकोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते हैं। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीय स्थान कहा है । किन्तु भेदों के उल्लेख में 'महामोहं पकुब्वाइ' शब्द का प्रयोग हुआ है । वे स्थान जैसे कि - त्रस जीवों को पानी में डुबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि बांधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी 'बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना, आदि हैं।
दश उद्देशक (दशा) का नाम 'आयतिस्थान' है । इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है । निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प । जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उद्भूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प करता है । यह संकल्पविशेष ही निदान है । निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता । भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम आयतिस्थान रखा गया है । आयति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान जन्म का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से 'ति' पृथक् कर लेने पर 'आय' अवशिष्ट रहता है। आय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है ।
इस दशा में वर्णन है कि भगवान महावीर राजगृह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी बेलना भगवान के वन्दन हेतु पहुँचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगे- श्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप,
१ तीसं मोह-ठाणाई अभिक्खणं- अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेइ
-वशाल तस्कन्ध, पृ० ३२१ – उपा० आत्मारामजी महाराज