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अंगबाह्य आगम साहित्य ३५३ .. ये सभी नाम एकार्थक हैं, तथापि व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर किंचित् अर्थभेद भी है और यह अर्थभेद प\षणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं एवं उस नियत काल में की जाने वाली क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण निदर्शन कराता है। इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं। पर्युषणा काल के आधार से कालगणना करके दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है। पर्युषणाकाल एक प्रकार का वर्षमान गिना जाता है। अत: पर्युषणा को दीक्षा पर्याय की अवस्था का कारण माना है। वर्षावास में भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष क्रियाओं का आचरण किया जाता है अत: पर्युषण का दूसरा नाम पज्जोसमणा है।
तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह 'पागइया' यानि प्राकृतिक कहलाता है।
इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुणों की सेवाउपासना करता है अत: उसे पज्जुसणा कहते हैं।
इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावास-वर्षावास कहा गया है।
कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास व्यतीत करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं।
ऋतुबद्ध काल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं अतएव यह ठवणा (स्थापना) है।
ऋतुबद्ध काल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है।
अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुँचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी-अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए। इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो