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________________ ३५२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा बारहवीं प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसका आराधन तेले से किया जाता है। गांव के बाहर श्मशान में खड़े होकर मस्तक को थोड़ा झकाकर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि रखकर निनिमेष नेत्रों से निश्चिततापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग आने पर समभाव से सहन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में स्थित श्रमण के लिए अन्य अनेक विधान भी किये गये हैं। जैसे-कोई व्यक्ति प्रतिमाधारी निर्ग्रन्थ है तो उसे भिक्षाकाल को तीन विभाग में विभाजित करके भिक्षा लेनी चाहिये ----आदि, मध्य और चरम । आदि भाग में भिक्षा के लिए जाने पर मध्य और चरम भाग में नहीं जाना चाहिये। मासिकी प्रतिमा में स्थित श्रमण जहां कोई जानता हो वहाँ एक रात रह सकता है। जहाँ उसे कोई भी नहीं जानता वहाँ वह दो रात रह सकता है। इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद अथवा तप प्रायश्चित्त लगता है। इसी प्रकार और भी कठोर अनुशासन का विधान किया है जिसे पढ़कर जैन आचार की कठोरता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे कोई उपाश्रय में आग लगा दे तो भी उसे उपाश्रय से बाहर नहीं निकलना चाहिये और यदि बाहर हो तो भीतर नहीं जाना चाहिए। यदि कोई पकड़कर उसे बाहर खींचने का प्रयत्न करे तो उसे हठ न करते हुए सावधानीपूर्वक बाहर निकल जाना चाहिए। इसी तरह सामने यदि मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, कुत्ता, व्याघ्र आदि आ जाएँ तो भी उसे उनसे डरकर एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिये । शीतलता तथा उष्णता के परीषह को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये। आठवें उद्देशक (दशा) में पर्युषणा कल्प का वर्णन है। पर्युषण शब्द "परि" उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से 'अन:' प्रत्यय लगकर बना है। इसका अर्थ है-आत्मा के समीप रहना, परभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना, आत्ममज्जन, आत्मरमण या आत्मस्थ होना। पर्युषणा कल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन या निरावलंबन रूप दो प्रकार का है। सालंबन का अर्थ है सकारण और निरावलंबन का अर्थ है कारणरहित । निरावलंबन के जघन्य और उत्कृष्ट दो भेद हैं। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-(१) परियाय वत्थवणा (२) पज्जोसमणा (३) पागइया (४) परिवसना (५) पज्जुसणा (६) वासा- . वास (७) पढमसमोसरण (८) ठवणा और (8) जेट्ठोग्गह ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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