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अंगबाह्य आगम साहित्य
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स्व-सिद्धान्तों का वर्णन करना स्वसमयवक्तव्यता है। अन्य मतों के सिद्धान्तों की व्याख्या करना परसमयवक्तव्यता है। स्वपर उभय मतों की व्याख्या करना उभयसमयवक्तव्यता है।
जो जिस अध्ययन का अर्थ है अर्थात् विषय है वही उस अध्ययन का अर्थाधिकार है । उदाहरण के रूप में जैसे आवश्यकसूत्र के ६ अध्ययनों का सावद्ययोग से निवृत्त होना ही उसका विषयाधिकार है वही अर्थाधिकार कहलाता है ।
समवतार का तात्पर्य यह है कि आनुपूर्वी आदि जो द्वार हैं उनमें उन उन विषयों का समवतार करना अर्थात् सामायिक आदि अध्ययनों की आनुपूर्वी आदि पाँच बातें विचार कर योजना करना। समवतारनाम के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव समवतार इस प्रकार छह भेद हैं । द्रव्यों का स्वगुण की अपेक्षा से आत्मभाव में अवतीर्ण होनाव्यवहारनय की अपेक्षा से पररूप में अवतीर्ण होना आदि द्रव्य समवतार है । क्षेत्र का भी स्व-रूप, पर-रूप और उभयरूप से समवतार होता है । कालसमवतार श्वासोच्छ्वास से संख्यात, असंख्यात और अनन्तकाल (जिसका विस्तार पूर्व में दे चुके हैं) तक का होता है। भावसमवतार के भी दो भेद हैं- आत्मभाव समवतार और तदुभय समवतार। भाव का अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होना आत्मभाव समवतार कहलाता है। जैसे—क्रोध का क्रोध के रूप में समवतीर्ण होना । भाव का स्व-रूप और पर-रूप दोनों में समवतार होना तदुभय भावसमवतार है। जैसे- क्रोध का क्रोध के रूप में समवतार होने के साथ ही मान के रूप में समवतार होना तदुभय भावसमवतार है ।
• अनुयोगद्वारसूत्र में अधिक भाग उपक्रम की चर्चा में ले रखा है । शेष तीन निक्षेप संक्षेप में हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना ऐसी है कि ज्ञातव्य विषयों का प्रतिपादन उपक्रम में ही कर दिया है जिससे बाद के विषयों को समझना अत्यन्त सरल हो जाता है ।
निक्षेप, यह अनुयोगद्वार का दूसरा द्वार है। उपक्रम के पश्चात् निक्षेप पर चिन्तन सरल हो जाता है। अतः निक्षेप पर चिन्तन करते हुए ओघनिष्पन्न निक्षेप, नामनिष्पन्ननिक्षेप और सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपइस प्रकार तीन भेद किये हैं। ओघनिष्पन्ननिक्षेप, अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा के रूप में चार प्रकार का है। अध्ययन के नामाध्ययन,