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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
एतदर्थं ही उसे जिनशासन का मूल कहा है। विनय केवल मानसिक आस्था नहीं वरन् आत्मिक और व्यावहारिक विशेषताओं की अभिव्यंजना है। जो गुरु की आज्ञा का पालन करता हो, गुरु के समीप रहता हो, गुरु के इंगित और मनोभावों को जानता हो वह विनीत है। जैसे मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की आवश्यकता होती है किन्तु अच्छी नस्ल का घोड़ा चाबुक देखते ही सही मार्ग पर चलने लगता है वैसे ही विनीत साधक मरियल घोड़े की तरह नहीं किन्तु आकीर्ण घोड़े की तरह इंगित मात्र से ही समझकर पापकर्म त्याग देता है । अपनी आत्मा का दमन करके जिसने अपनी आत्मा को वश में कर लिया है वह इहलोक और परलोक दोनों में सुखी होता है । कदाचित् आचार्य क्रुद्ध हो जाय तो उन्हें प्रेमपूर्वक प्रसन्न करना चाहिये। हाथ जोड़कर उनकी क्रोधाग्नि को शान्त करना चाहिए और उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहिये कि भविष्य में वह ऐसा कार्य कभी न करेगा ।
जो सहा जाता है
द्वितीय अध्ययन में परीषह का वर्णन है। वह परीषह है । सहने के दो प्रयोजन हैं -- ( १ ) सुकृतमार्ग से च्युत न होने के लिए और (२) कर्मों को क्षीण करने के लिए। जो कष्ट इच्छा से झेला जाता है वह कायक्लेश है और इच्छा के बिना ही प्राप्त होता है वह परीषह है । परीषह सहने से अहिंसादि धर्मों की सुरक्षा होती है । परीषह २२ हैं - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, अचेल (वस्त्र रहित होना), अरति (अप्रीति), स्त्री, चर्या (गमन), निषद्या ( बैठना ), शय्या, आक्रोश (कठोर वचन), वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल (मल), सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन ।
तपोसाधना के कारण साधक की बाहु-जंधा कृश हो जाय, शरीर की प्रत्येक नस दिखाई देने लगे तथापि भोजन-पान के लिए भिक्षु दीनवृत्ति नहीं करता। वह तृषा से पीड़ित होने पर भी सचित्त जल का उपयोग नहीं
१ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा दंतो सुही होइ तुलना कीजिए— अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्तना हि सुदन्तेन
अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अस्सिं लोए परत्य य ॥ - उत्तरा० अ० १ गा० १५
को हि नाथो परो सिया । नाथं लभति दुल्लभं ॥
धम्मपद १२४