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२४४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा कारण पुद्गल है। जीव स्थितिपरिणत भाषा के पुद्गलों को काययोग से ग्रहण कर भाषा रूप में परिणत करता है। ये भाषा के पुद्गल जब भाषा के रूप में बाहर निकलते हैं तब सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। लोक बज्राकार होने से भाषा का आकार भी शास्त्रकार ने बचाकार बतलाया है। भाषा का पर्यवसान लोकान्त में होता है अत: भाषा के पुद्गल समग्र लोक में फैलकर उसको भर देते हैं। लोक के आगे भाषा के पुदगल नहीं जाते क्योंकि गमन-क्रिया में सहायभूत धर्मास्तिकाय लोक में ही है। जो भाषा के पुद्गल ग्रहण किये वे भाषा के रूप में परिणत होकर बाहर निकलते हैं । उसका काल परिमाण दो समय का है। जीव प्रथम समय में उन्हें ग्रहण करता है और द्वितीय समय में बाहर निकालता है। आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य में बताया गया है कि काययोग से भाषा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वाक्योग से उसका निर्गमन होता है।
पुद्गल परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध रूप होते हैं। जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशी हैं उन्हीं का ग्रहण भाषा के लिए उपयोगी होता है । क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात प्रदेशों में स्थित स्कन्ध, काल की दृष्टि से एक समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले होते हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समान नहीं होते परन्तु सभी रूपादि परिणाम वाले तो होते ही हैं । स्पर्श की दृष्टि से चार स्पर्श वाले पुद्गलों का ही ग्रहण होता है । आत्मा के साथ स्पर्श किये हुए पुद्गलों का ही ग्रहण होता है। आत्मा आकाश के जितने प्रदेशों को अवगाहन कर रहता है उतने ही प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुदगलों को वह ग्रहण करता है।
प्रस्तुत पद में भाषा के भेदों का अनेक दृष्टियों से वर्णन किया गया है। भाषा के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । पर्याप्त के सत्यभाषा और मषाभाषा ये दो भेद हैं। सत्यभाषा के जनपदसत्य, सम्मतसत्य आदि १० भेद हैं और मृषा-असत्यभाषा के क्रोधनिश्रित, माननिश्रित आदि १० भेद हैं। अपर्याप्त भाषा के सत्यामृषा और असत्यामृषा दो भेद हैं। जिसमें अर्द्धसत्य अभिप्रेत है वह सत्यामषा है, उसके १० भेद हैं और जिसमें सत्य या मिथ्या
१ आवश्यकनियुक्ति गा०७ २ विशेषावश्यकभाष्य गा० ३५३