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अंगबाह्य आगम साहित्य २३३ प्रज्ञापना में सर्वप्रथम मंगलाचरण किया है। उसमें प्रथम अरिहंत को नहीं किन्तु सिद्ध को नमस्कार किया गया है। फिर भगवान महावीर को नमस्कार किया है।
प्रथम पद में जैनदर्शन सम्मत मौलिक तत्त्वों की व्यवस्था भेद-प्रभेद बताकर की गई है। उसके पश्चात् उन्हीं तत्त्वों का विशद रूप से निरूपण किया गया है। प्रज्ञापना को जीव और अजीव इन दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम अजीव प्रज्ञापना है क्योंकि इसका विषय कम है। उसके पश्चात् कुछ अपवाद के अतिरिक्त जीव के सम्बन्ध में विविध रूप से विचार किया है। अजीव में रूपी और अरूपी ये दो भेद हैं। रूपी में पुद्गल द्रव्य और अरूपी में धर्म, अधर्म, आकाश और अद्धा समय (काल) आदि तत्त्व हैं। इन भेदों के विश्लेषण में द्रव्य, तत्त्व या पदार्थ जैसे सामान्य नाम का उपयोग नहीं हुआ है जो इस आगम की प्राचीनता को सिद्ध करता है। जो रूपी पदार्थ हैं वे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान युक्त होते हैं । इस प्रकार वर्ण के १००, गंध के ४६, रस के १००, स्पर्श के १८४ और संस्थान के १०० भेद होते हैं। कुल मिलाकर रूपी अजीव - पुद्गल के ५३० भेद होते हैं ।
जीव के संसारी और सिद्ध ये दो मुख्य भेद हैं। सिद्धों के १५ भेद किये गये हैं। वे समय, लिंग, वेश और परिस्थिति आदि की दृष्टि से किये गये हैं। उसके पश्चात् संसारी जीवों के भेद-प्रभेद बताये हैं। इस गणना का मुख्य आधार इन्द्रियाँ हैं । उनके भेद-प्रभेदों में जीवों की सूक्ष्मता और स्थूलता, पर्याप्ति और अपर्याप्त कारण हैं और जन्म के प्रकार को लेकर के भी भेद होते हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक संमूच्छिम, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में गर्भज और संमूच्छिम, नारक और देवों में उपपात जन्म है। नारक और संमूच्छिम नियम से नपुंसक ही होते हैं। गर्भज में तीनों लिंग होते हैं । देवों में पुरुष और स्त्री दो लिंग होते हैं। इस प्रकार लिंग के भेद से उन उन जीवों के भेद किए गए हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में जो भेद है उसका मूल आधार चार गति है। साथ ही गर्भज और संमूच्छिम यह भी भेद का कारण है। मनुष्य के भेदों में देशभेद, संस्कारभेद, व्यवस्थाभेद, ज्ञानादि शक्तिभेद, आदि हैं। नारक और देवों का भेद स्थानभेद से है ।