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________________ ५२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा स्त्री-परिज्ञा नामक चतुर्थ अध्ययन में स्त्री सम्बन्धी परीषहों को सहन करने का उपदेश प्रदान किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में स्त्रियों की जो निन्दा की गई है, वह एकांगी है । वस्तुत: श्रमण के पथभ्रष्ट होने का मूल कारण उसकी स्वयं की वासना है। स्त्री जिस प्रकार पुरुष की वासना को उत्तेजित करने में निमित्त बन सकती है वैसे ही पुरुष भी स्त्री की वासना को उत्तेजित करने में निमित्त बन सकता है। अत: श्रमण और श्रमणियों को सतत सावधान रहना चाहिए। पञ्चम अध्ययन का नाम नरकविभक्ति है। इसके दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में २७ गाथाएँ हैं और द्वितीय उद्देशक में २५ गाथाएँ हैं। नरक में जीव को किस प्रकार के भयङ्कर कष्ट भोगने पड़ते हैं, यह बताया गया है। जो हिंसक हैं, असत्यभाषी हैं, चोर हैं, लुटेरे हैं, महापरिग्रही हैं, असदाचारी हैं, उन्हें इस प्रकार के नरकावासों में जन्म ग्रहण करना पड़ता है। अतः साधकों को उन दोषों से बचना चाहिए। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में नरकों का वर्णन है। योगसूत्र के व्यास भाष्य में सात महानरकों का वर्णन है।' भागवत में २८ नरक बताये गये हैं । २ बौद्धग्रन्थ सुत्तनिपात के 'कोकालिय' नामक सुत्त में १ महाकाल, अम्बरीष, रौरव, महारौरव, कालसूत्र, अन्धतामिस्र, अधीचि । इन नरकों में जीवों को अपने कृत कमों का कटु फल प्राप्त होता है और वहाँ पर जीवों की आयु भी लम्बी होती है। देखिए-योगदर्शन, व्यास भाष्य : विभूतिपाव २६ नरक में दीर्घकाल तक कर्म के फल को भोगने के पश्चात् जीव का वहाँ से छुटकारा होता है । ये नरक हमारी भूमि और पाताल लोक से नीचे हैं। भाष्य की टीका में नरकों के अतिरिक्त कुम्भीपाकादि का भी वर्णन है। वाचस्पति ने कुम्भीपाकादि की संख्या अनेक बताई हैं और भाष्यवार्तिककार ने अनन्त लिखी है। उनमें प्रथम २१ नरकों के नाम ये हैं-(१) तामिस्र (२) अंधतामिस्र, (३) रौरव, (४) महारौरव, (५) कुम्भीपाक, (६) कालसूत्र, (७) असिपत्रवन, (८) सूकरमुख, (६) अंधकूप (१०) कृमिभोजन, (११) संदंश, (१२) तप्तसूमि, (१३) वज्रकण्टक, (१४) शाल्मली, (१५) वैतरणी, (१६) पूयोद, (१७) प्राणरोध, (१८) विरासन, (१६) लालाभक्ष, (२०) सारमेयादन, (२१) अवीचि, तथा अयःपान । -श्रीमद्भागवत (छायानुवाद), पृ०१६४, पञ्चमस्कन्ध २६-५-३६ इन नरकों के अतिरिक्त कुछ व्यक्तियों के अनुसार अन्य सात नरक भी हैं-(२२) क्षारकर्दम, (२३) रक्षोगणभोजन, (२४) शूलप्रोत, (२५) दंडशूल, (२६) अवटनिरोधन, (२७) पयोवर्तन, (२८) सूचीमुख ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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