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कुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति
उसका जो लाभ या फल समाज को मिलना था, वह मिला ही, परन्तु उनकी कीर्ति के सहारे भविष्य में भी सत्कृति अपना कार्य करती है। एक किसान खेत में बीज थोता है, उस पर पूरा परिश्रम करता है तो उसे फसल भी अच्छी और प्रचुर मात्रा में मिलती है। यों उसे अपनी कृति का अच्छा फल मिल जाता है। उसकी कृति सफल हो गई, वहीं वह समाप्त भी हो गई। परन्तु अमुक किसान ने अमुक खेत में अनुक तरीके से काम किया तो उसस बहुत अच्छी एवं प्रचुर मात्रा में फसल पैदा हुई। इस प्रकार बाद में उस सत्कर्म की कीर्ति फैलने लगती है। फिर वह कीर्ति ही दूसरे अच्छे कार्यों के लिए प्रेरणादायिनी बनती है। दूसरे कृषक भी उसका अनुकरण करते हैं । उनी भी उसका अच्छा फल मिलता है। फिर उनकी कीर्ति भी पैलती है, जिसके फलस्वरूप ऐम अनेक सत्कार्य उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार यों कहा जा सकता है कि रात्कार्य की परम्परा को चलाने वाली जो शक्ति है, वही कीर्ति है। अन्यथा एक व्यक्ति या एक परिवार का सत्कार्य अथवा एक समाज का सत्कर्म एक व्यक्ति, एक परिवार या एक समाज तक ही सीमित रहता। फल भी इसी तरह सीमित रहता है। आगे उसकी पम्परा ही नहीं चलती। आप जानते है कि कुल, गण, संघ और समाज की अपनी एक पाम्परा चलती है। जब सत्कार्य को एक व्यक्ति में ही बन्द कर दिया जाएगा, तब यह फूल-परम्परा कैसे चलेगा? इसके उत्तर में यही कहा जाएगा की कीर्ति ही कुल जाति, गण संघ या समाज में सत्कार्य की परम्परा को आगे चलाएगी। इसीलिए प्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यकार बेकन (Bacon) कहता है---
"Good fame is like fire; when you have kindled, you may easily preserve it; but if you extinguish it, you will not easily kindle
it agains."
“सुकीर्ति अग्नि की तरह है, जब तुम इसे जलाओगे, तव ही इसे (परम्परा से) सुरक्षित रख सकोगे, किन्तु यदि तुम इस सुकीर्ते की आग को बुझा दोगे, तो फिर इसे आसानी से चला नहीं सकोगे।"
यह सत्य है कि कीर्ति से आगे से आगे जब सत्कार्यों की परम्परा चलती है, तव उस कुल, संघ या समज की नसों में उसके संस्कार प्रविष्ट हो जाते हैं। इसी से संस्कृति बनती है। निष्कर्ष यह है कि सत्कार्य की पम्परा कीर्ति के द्वारा कायम रहने से ही संस्कृति का निर्माण होता है। समाज में अच्छे अच्छे कार्य करने के जो प्रयत्न हुए हैं तथा उन कार्यों के प्रति समाज का जो आत्मभाव उत्पन्न हुआ, वही समाज की संस्कृति
इसीलिए कीर्ति एक नदी की तरह प्रारम्भ में बहुत संकीर्ण और अन्त में विस्तृत हो जाती है। भारतीय संस्कृति के एक विचारक ने इओ ओर इंगित किया है
कीर्तिः पुण्यात् पुण्यलोके नैव पापं प्रयच्छति । कीयमान मनुष्यस्य, तस्मात् पुण्य समाचरेत।