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________________ कुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति ८७ इस प्रकार से कीर्तन करें (कहें) कि अहो ! यह बड़ा पुण्यशाली है। अथवा तप, दान, पुण्य आदि कार्य करने पर उसकी एक दिशाव्यापी प्रशंसा हो' वह कीर्ति है, इसके विपरीत उसके अवगुणों, गलत कार्यों की लोग निन्दा करें, बदनामी करें, उसे धिक्कारें या अपमानित करें, वह अकीर्ति है। सामान्यतयाः कीर्ति एक दिशागामिनी होती है, जो दान, पुण्य आदि कार्यों के करने मे होती है, जबविल यश सर्वदिशागामी होता है, जो शत्रु पर विजय पाने हेतु संग्राम में पराक्रम करने से फैलता है। कीर्ति से उलटी अकीर्ति है। इसलिए अगर आप पहले कीर्ति को ठीक से समझ लेंगे तो अकीर्ति भी आपकी समझ में आ जाएगी। भगवद्गीता में कीर्ति को नारी की सात शक्तियों में सर्वप्रथम शक्ति बताई गई है। इस जगत् में आकर मनुष्य को दान, सेवा, परोपकार, रक्षा, दया, करुणा, सहानुभूति, मानवता आदि के पुण्यकार्य, सत्कार्य या शुभकार्य करता है, उसके फलस्वरूप दुनिया में जो सद्भावना पैदा होती है, लोगों की जो शुभेछाएं, मंगलकामनाएँ या शुभाशीर्षे मिलती हैं, अथवा जनता के मुख से वाहवाह, धन्य-धन्न, आदि प्रशंसा सूचक उद्गार निकलते हैं, संसार में उसके शुभकार्यों के फलस्वरूप जो नागना, ख्याति या प्रसिद्धि होती है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा, सम्मान या इज्जत बढ़ती है, उसे कीर्ति कहते हैं। कीर्तन शब्द भी उसी में से निकला है। कृति अच्छी हो, कार्य सुन्दर, सर्वहितकर, जन लाभकर एवं सहायकारक हो, वहीं सार्वजनिक सद्भावना या शुभेच्छा पैदा होती है। इसलिए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि सुकृति, सत्कार्य, सुकृत ही कीगि का मूल है। पाश्चात्य विद्वान् कालाइल (Carlyle) के शब्दों में कहूँ तो "Fame is the sure test of merti." 'निःसंदेह, कीर्ति उत्तम गुण की परीक्षा है।' वास्तव में, मानवजीवन में निहित शीन, चारित्र, ज्ञान आदि गुणों को परखने का थर्मामीटर यदि कोई है तो कीर्ति है। तर्ति के द्वारा मानव के उत्तम कार्यों का १ दान पुण्यकृता कीर्तिः पराक्रमकृत यशः । एक दिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गमकं यशः। -कर्मग्रन्थ, भाग १ कीर्तनं कीर्तिः । अहो पुण्य भागित्येव लक्षणे। -आवश्यक सर्वदिग्व्यापिनी साधुवाद। स्था० कीर्तने, संशब्दने, सश्लाघने । -भगवती गुणोत्कीर्तनरूपायां प्रशंसायां दानपुण्यकृतां एक दिग्गामिन्याम्। -पंचा० पुण्यगुणख्यापनकारणं यशःकीर्तिनाम, तायनीकफलमयशः कीर्तिनाम। सर्वार्थ जस्स कम्मस्स उदएण संताणमसंताणं गा गुणाममुब्भावणं लोगेहि कीरदि तस्स कम्मस्स सकित्तिसण्णा । जस्स कम्मस्सोदेण संताणमसंताणं वा अवगुणाणं उब्भावणं जणेण कीरदे, तस्स कम्मस्स अजसकित्तिसण्मा। -धवला ६१
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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