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________________ ८४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ भगवद्गीता (अध्याय २) में विस्तृत रूप से अनेक गुणों के रूप में स्थितप्रज्ञ' के लिए बताए हैं प्रजहाति यदा कामान्, सान पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते । ५५ दुःखेष्वनुदिनमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते । ५६ । यः सर्वजानाभिस्त्रेहस्तन्नत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । ५७। यदा संहरते चायं, कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः इन्द्रियाणीन्द्रियार्वेभ्यस्तस्पप्रज्ञा प्रतिष्ठिता। ५८। तानि सर्वाणि संयम्य मुक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । ६१॥ प्रसाद सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसनचेतसो ह्याशुद्धिः पर्यवतिष्ठति । ६५। अर्थात्-हे अर्जुन ! जव मनुष्य आपनी मनोगत समस्त वासनाओं-कामनाओं को छोड़ देता है तो शुद्ध आत्मा में स्वयं सन्तुष्ट हो जाता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। दुःखों के प्राप्त होने पर जिसका मा उद्विग्न-व्याकुल नहीं होता और विविध विषय-सुखों को प्राप्त करने की जिसकी लालसा नहीं रहती, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो चुके हैं, वही स्थिरबुद्धि माने (मननशील पुरुष) है। जो सर्वत्र सभी परिस्थितियों में अनासक्त रहता है, उन-उन शुभ और अशुभ, प्रिय और अप्रिय के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है, न द्वेष (घृणा) करता है। ऐसी स्थिति जिसे प्राप्त है, उसकी बुद्धि स्थिर है। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोड़ लेता है, वैसे ही जो पुरुष अन्तर-बाह्य सभी इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में चारों ओर से खींच लेता है, समझ लो, उसी की प्रज्ञा आत्मा में स्थित है। उन सब इन्द्रियों को संयम में रखकर युक्त होकर जो परमात्मा में लीन हो जाता है, इस तरह जिसकी इन्द्रियाँ वश हो गई, उसकी बुद्धि स्थिर हो गई। राग-द्वेषरहित इस निर्मलता से प्रसन्नता प्राप्त होने पर उस संयतेन्द्रिय पुरुष के समस्त दुखों का नाश हो जाता है। जिसका चित्त ऐसी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है, उसकी बुद्धि शीघ्र ही धिर हो जाती है। निष्कर्ष यह है कि महर्षि ने स्थिरबुद्धि के लिए जिन दो विशिष्ट गुणों की ओर संकेत किया है, गीतकार उन्हीं दो गुणों को प्राप्त करने के स्रोत के रूप में राग, द्वेष, काम, क्रोध, भय, मोह, आसक्ति आदि के त्याग को आवश्यक मानते हैं। गौतम कुलककार एवं गीतकार शेनों स्थिरबुद्धि त्याग करने के लिए विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक बताते हैं, परन्तु उन्होंने कहीं यह नहीं कहा कि धन से स्थिरबुद्धि प्राप्त होती है। सचमुच भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं--(१) समस्त मनोकामनाओं का त्याग. (२) शुक्र आत्मा में सन्तुष्ट, (३) सुख-दुख में सम, (४)
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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