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________________ το आनन्द प्रवचन भाग मल्लाह जब छात्रों को ही नहीं, अपितु मालवीयजी को भी गालियाँ देता हुआ, जहाँ बैठक चल रही थी, वहाँ पहुंच गया तो उसका बड़बड़ाना सुनकर सब लोगों का ध्यान उधर खिंच गया। बैठक में चलती हुई बातों का क्रम भंग हो गया। उस मल्लाह का चेहरा स्पष्ट बतला रहा था कि वह किसी कारणवश बेतरह क्रुद्ध और दुखित है। मालवीयजी ने उसे ध्यानपूर्वक देखा और उसके आन्तरिक कष्ट को समझा। वे अपने स्थान से सहजभाव से उठे और विनम्रतापूर्वक बोले- "भाई ! लगता है, जाने-अनजाने में हमसे कोई गलती हो गई है। कृपया अपनी तकलीफ बतलाएँ। जब तक अपने कष्ट को नहीं बतलाएँगे, तब तक हम उसे कैसे समझ सकेंगे ?" मल्लाह को यह आशा न थी कि उसकी व्यथा इतनी सहानुभूतिपूर्वक सुनने को कोई तैयार हो जाएगा। उसका क्रोध शान्त हो गया। अपने ही अभद्र व्यवहार पर वह मन ही मन लज्जित हुआ और पश्चात्ताप करने लगा। उसने सारी घटना बताई और अपनी अशिष्टता के लिए क्षमा माँगने लगा । मालवीयजी ने कहा- "कोई बात नहीं, लड़कों से जो आपका नुकसान हुआ है, उसे पूरा कराया जाएगा। पर इतना आपको भी भविष्य में ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी प्रिय-अप्रिय घटना पर इतनी जल्दी इतनी अधिक मात्रा में क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। पहली गलती तो विद्यार्थियों ने की और दूसरी आप कर रहे हैं। गलती का प्रतिकार गलती से नहीं किया जाता। आप सन्तोषपूर्वक अपने घर जाएँ। आपकी नाव की मरम्मत हो जाएगी।" मल्लाह अपने घर चला गया। उपस्थित सभी लोग मालवीयजी की शिष्टता, विनम्रता, सहनशीलता और स्थिरबुद्धि को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने लोगों से कहा - "भाई ! नासमझ लोगों से निपट लेने का इससे सुन्दर और कोई तरीका नहीं। यदि हम भी अपनी संतुति बुद्धि खोकर वैसी ही गलती करें और मामूली-सी बात पर उलझ जाएँ तो फिर हममें और उनमें अन्तर ही क्या रह जाएगा ?" सभी लोगों ने घटना की वास्तविकता और मालवीयजी द्वारा स्थिरबुद्धि से किये गये समाधान से बहुत बड़ी प्रेरणा ली। बाद में मालवीयजी के आदेशानुसार उन लड़कों के दण्डस्वरूप उस नाव की पुनः मरम्मत करवा की गई। यह है, सौम्यता के कारण प्राप्त होने वाला स्थिरबुद्धि का उदाहरण । विनीत को स्थिरबुद्धि प्राप्त होती है, अविनीत को नहीं अभिमानयुक्त बुद्धि के साथ मनुष्य में आत्मनिरीक्षण, स्वदोषदर्शन की शक्ति और आत्मशुद्धि की क्षमताएँ नष्ट होने लगती हैं, जिससे वह अपना वुनियादी सुधार नहीं कर सकता। अभिमानी व्यक्ति की जब भी कोई निन्दा कर देता है, उसे जरा-सा भी चुभता वचन कह देता है या उसका वास्तविक दोग या अपराध भी कोई व्यक्ति उसके समक्ष प्रगट कर देता है तो वह उससे द्वेप, रोष, गैर-विरोध करने लगता है, उस समय उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती और आवेश में पगाल होकर वह हितैषी व्यक्ति से भी शत्रुता
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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