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आनन्द प्रवचन : भाग ६
यहां भेजा है, अन्यथा फाँसी तो वहाँ भी थी।"
यह सुनते ही सम्राट ने दोनों को शीघ्र मुक्त कर दिया और उस राजा पर एक विरोधपत्र भी लिखकर दिया।
कहने का मतलब है धन और स्थिरबुद्धि में जमीन-आसमान का अन्तर है। धन कदापि बुद्धि के समकक्ष नहीं हो सकता और ना ही बुद्धि धन का आसन ग्रहण कर सकती है क्योंकि बुद्धि धन से कदापि खरीदी नही जा सकती और न ही किसी से उधार ली जा सकती है। स्पष्ट कहा है
बुद्धि कहीं बिकती नहीं, गिलती नहीं उघार।
बुद्धि हृदय से उपजती, 'चन्दन' करो विचार । अतः सौ की एक बात है, सात्त्विक और स्थिरबुद्धि पूर्वोक्त गुणों से ही प्राप्त हो सकती है। बल्कि धन का अहंकार और मद रमत्त्विक बुद्धि को ही नष्ट कर देता है, उससे बुद्धि का आगमन हो नहीं सकता। इसकिए धन से बुद्धि का आगमन करने के बजाय, सद्बुद्धि से सम्पत्ति का आगमन सम्भव है। जैसा कि भारतीय संस्कृति के उद्गाता कवि का कथन है
जहाँ सुमति तहँ सम्पत नाना।
जहाँ कुमति तहां विगत निदाना। आज अधिकांश धनिकों में यह भ्रान्ति घर कर गई है कि हम धन से दस शिक्षकों को बेतन पर रखकर अपनी बुद्धि बढ़ा सकते है। परन्तु यह बात यथार्थ नहीं है। धन से अक्षरीय ज्ञान या भौतिक जानकारी बढ़ सकती है, भगर सात्त्विक एवं स्थिरबुद्धि प्राप्त होना दुष्कर है। संगति से भी बुद्धि सात्त्विक व स्थिर नहीं।
कई लोग कहते है कि केवल संगति से मनुष्य की बुद्धि सात्त्विक और स्थिर हो जाती है या बढ़ जाती है, परन्तु यह बात भी एकान्ततः यथार्थ नहीं है। अगर संगति से ही बुद्धि सात्त्विक या स्थिर हो गई तो गोशालक, जामाली आदि अनेक व्यक्तियों की बुद्धि तीर्थंकर भगवान महावीर की संगति में रहने से सात्त्विक या स्थिर क्यों नही हो गई ? क्यों उनकी बुद्धि विपरीत हो गई जो व्यक्ति कुबुद्धि या दुगुणों के चक्कर में पड़ा हो, उसे महापुरुषों की संगति करने पर भी सुबुद्धि नहीं आती। जैसा कि बिहारी कवि ने कहा है
संगति सुमति न पावही, परे कुमति के पंध।
राखी मेली कपूर में, हो न होत सुगन्य। गुजरात के एक भक्त कवि 'प्रीतम' ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है
संगत तेने शं करे, जईने कुबुद्धिमाँ घरे कान । ध्रुव । मेरी कपूर बेऊ भेगां रे राता, निरनतर करी एकवास। तोयतिखाश ऐनी नटली रे, ऐनी बुद्धिमाँ नाख्यो वराश। चंदन भेलो वीटीने रहेतो रे, रात दिवस भोयंग।