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सौम्प और विनीत की बुद्धि स्थिर : २
तोय कंठे थी विष न गयूँ रे, एने न आवी शीतलता अंग । दादुर रहेतो तालाबमाँ ६, नित्य कमलनी पास। कल-बल करतो काँचमाँ रे, ऐने न आवी कमलनी सुवास । तात्पर्य यह है कि अगर जीवन में। स्थरबुद्धि के योग्य गुण न हों तो केवल संगति से भी प्रायः सुबुद्धि नहीं आ सकती।
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संवट आ पड़ने से भी बुद्धि परिपक्व नहीं
कई लोग कहते हैं कि संकटों या मुसीबतों को सहते-सहते मनुष्य की बुद्धि परिपक्व एवं स्थिर हो जाती है। यह भी सर्वशतः सत्य नहीं है। संकटों को धैर्यपूर्वक, किन्हीं (निमित्तों) को कोसे बिना, रोष, द्वेष, आदि आवेशों से रहित होकर सहने से अवश्य ही बुद्धि स्थिर हो जाती है, मगर हा-हाय करते हुए गाली और शाप देते हुए सहने से तो रही-सही बुद्धि भी पलायित हो जाती है। पश्चात्ताप करने पर बुद्धि आई, उससे तो कोई काम सुधरता नहीं, पहले को सद्बुद्धि आ जाती तो कितना अच्छा होता? चाणक्य नीति में इस सन्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डाला है---
उत्पन्न पश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वे स्यात् वत्स्या न स्यान्महोदयः ? धर्माख्याने श्मशाने न संगिणां या मतिर्भवेत् ।
सा सर्वदैवावतिष्ठेचेत् को न मुच्यते बन्धनात् ।
पश्चात्ताप के समय जैसी सद्बुद्धि होंत्री है, वह यदि पहले ही प्राप्त हो जाए तो किसका महान् अभ्युदय न हो जाता। धो कथा श्रवण के समय, मरघट में एवं रुग्णावस्था में जो विरक्तियुक्त बुद्धि होती है, अगर वह सदा के लिए स्थिर हो जाए तो कौन ऐसा है, जो बन्धनों से मुक्त न हो।
केवल नम्रता से भी बुद्धि नहीं
इसी प्रकार कोरे विनय से, नम्रता दिलाने से या किसी के सामने हाथ जोड़ने या पैरों में पड़ने माभ से भी ऐसी स्थिरबुद्धि प्राप्त नहीं होती। ऐसी विनय किस काम की, जो इधर तो नमन करे और उधर उसका गना काटने को तैयार हो जाये। एक पुत्र पिता के सामने हाथ जोड़ता है, परन्तु पिता की आज्ञा को ठुकरा देता है, क्या वह सच्चा विनीत सुपुत्र कहला सकता है ? कदाणि नहीं। इसी प्रकार जो व्यक्ति सामने तो बहुत ही नम्रता, भक्ति दिखलाता है किन्तु पीठ फेरते ही उसका बुरा करने को तैयार हो जाता है वह ठग, धोखेबाज, चापलूस या स्वार्थी हैं। सुविनीत' का अर्थ शास्त्र में लज्जाशील और इन्द्रिय दमनकर्ता बनाया है। सच्ची नम्रता या सच्चा विनय जब स्थिरबुद्धि के योग्य अन्य गुणों के सहित हो, अभी बुद्धि स्थिर होती है ।
१. "हिरिमं पडिसलीणे, सिविणीए " उत्तराध्धयन ११/१३