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________________ ६२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कामातुर अहंकारी भरमामुर विवेक बुद्धि को तितांजलि देकर तुरन्त अपने सिर पर हाथ रखकर नाचने को उद्यत हो गया। सिर पर आथ रखते ही अपने प्राप्त वरदान के प्रभाव से स्वयं भस्म हो गया और वहीं भूमि गिर पड़ा। इस प्रकार भस्मासुर की मारकदुर्बुद्धि ही उसके विनाश का कारण बनी। इसी कारण हम कह सकते हैं कि मनुष्य को आज इतनी असीम बुद्धिशक्ति मिली है, जिससे कुछ भी करना असाध्य नहीं। लेकिन आज का मानव अपनी बुद्धि के द्वारा संसार को स्वर्ग बनाने के बदले प्रायः नरल बना रहा है। आज का मनुष्य प्रायः संसार का ध्वसं करने ही तुला हुआ है। आज सने अपनी बुद्धि-शक्ति को गलत दिशा में लगाकर अपने लिए विनाश, अशान्ति एवं असंतोष की परिस्थितियाँ पैदा कर ली हैं। आज के वातावरण को देखते हुए मुझे तो संसार के अधिकाधिक नरक बनने की संभावनाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। आगे की बात जाने दीजिए, वर्तमान में भी संसार क्या एक नरक से कम भयंकर बना हुआ है। ? जिधर देखो, उधर दुःख, पीड़ा, हाहाकार, अभाव, आवश्यकता एवं शोक-सन्तण का ताण्डव होता दिखाई दे रहा है। मनुष्य मनुष्य के लिए भूत प्रेत की तरह शंकास्प बना हुआ है। सुख-सुविधा के इतने अगणित साधन एवं इतनी मानवबुद्धि होने पर भी मनुष्य को कोई सुख-शान्ति नहीं मिल रही है। जिस एक निश्चिन्तता एवं मुख-शान्ति को प्राप्त करने के लिए मानवबुद्धि प्राणप्रण से लगी हुई है, उसके दर्शन तो दुर्लभ ही हो रहे हैं। निःसंदेह, वर्तमान युग के बुद्धि बलिष्ठ मानव की यह दुर्दध्रा अत्यन्त दयनीय है। बन्धुओ ! क्या आप सबके दिमाग में यह प्रश्न नहीं उठता कि जो समर्थ बुद्धि आकाश-पाताल को एक करने की क्षमता रखता है, उस बुद्धिशक्ति का धनी मानव उन सुखों से क्यों बंचित होता जा रहा, जो बुद्धि के अल्प विकास के युग में सुलभ थे ? हम सबको इस पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। इसी समस्या का हल श्री गौतम महर्षि ने इस जीवनसूत्र में बता दिया है। उनका आशय यह है कि वह सच्ची और सात्त्विक बुदि।, अहंकार, काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि प्रचण्ड विकारों के कारण तिरोहित हो जाती है, और उसके स्थान में राजसी और तामसी बुद्धियाँ आकर खेलने लग जाती हैं। प्रही कारण है कि मनुष्य ने आज बुद्धि को तो विकट रूप से बढ़ा लिया है, परन्तु उसपर नियंत्रण करना नहीं सीखा है। उचित नियंत्रण के अभाव में वह बिल्कुल निमंकुश होकर चारों ओर ध्वंस के दृश्य उपस्थित करती है। बौद्धिक शक्ति में अप आप में कोई मर्यादा, नियंत्रण, या उपयोग करने का विवेक नहीं होता, यह तो मनुष्यपर ही निर्भर है कि यह क्रोधादि आवेश और अहंक: के थपेड़ों से बचाकर ऊो सुरक्षित रखे। मनुष्य की बुद्धि जब तक नियंत्रण में रहती तब तक उसका ठीक उपयोग होता है, ऐसी सात्त्विक बुद्धि दूरगामी परिणामों पर विचार करके उन सभी पाशविक एवं आसुरी प्रवत्तियों से बची रहती है, जो जीवन की सुखशान्ति और सुरक्षा को भंग करती हैं।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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