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सुख का मूल सन्तोष ५५ यही कारण है कि वे अपने जीवन में महान् आध्यात्मिक उन्नति कर सके। मनुष्य के मन में जब तक काम (इच्छाओं, कामनाओं एवं वासनाओं ) क्रोध एवं लोभ का महत्त्व रहेगा, तब तक बाहर से वह कितनी ही हटयोग साधना करले, आध्यात्मिक विकास नहीं होगा, उसके लिए सन्तोष को ही अपनाना होगा, जिससे इन तीनों (काम, क्रोध, लोभ) विकारों का शमन हो सके। इसे ही रागवतिमानस में कहा गया है—
बिनु संतोष न 'काम' नसाहीं । काम अछत सपनेहु सुख नाहीं । । नहि संतोष तो पुनि कछु कहहू । जनि 'रिस' रोक दुःसह दुख सहहू ।। उदित अगस्त्य पंयजल सोखा। जिमि लोभहिं सोखहिं संतोखा । ।
अतः संतोष से तीनों विकारों का शम्स करके आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने पर ही आनन्द और आत्मिक विकास हो सकेगा। वहिर्मुखी परिस्थितियों से बचकर अन्तर्मुखी जीवन का लक्ष्य और आनन्द प्राप्त करने का एक ही तरीका है संतोष ।
मनुष्य शरीर केवल काम, क्रोध, लोभ, मोह में पड़कर, विषयवासनाओं तथा धन की तृष्णाओं में फँसकर खो देने केलिए नहीं मिला है। मानव शरीर बहुत बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मिला है। जो लोग बाह्य जीवन की सफलता और समृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलते हैं वे वास्तविक लक्ष्य से भटककर पुनः मानसिक क्लेश के भागी बनते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन का विकास करना चाहते हैं, वे अल्पतम साधनों और परिमित आवश्यकताओं में ही स्वेच्छा से सन्तोष धारण करके आगे बढ़ते हैं। उस स्थिति में वे अन्त तक टिके रहकर अपने कल्याण की साधना करते हैं। इस दौरान जो भी भूख प्यास सर्दी-गर्मी आदि के कष्ट आते हैं, उन्हें संतोषपूर्वक सहते हैं। उनका चिन्तन यह होता है कि भोजन शरीर धारण करने के लिए है वह जैसा भी रुखा-सूखा मिल जाए उसी में सन्तोष करना चाहिए। अन्य जीवन यापन के साधन जो भी समय पर मिल जाएँ उन्हीं में सन्तुष्ट रहने से अपार आत्मसुख मिल सकता है। इसीलिए 'तत्त्वामृत में कहा है
यैः सन्तोषोदकं पीतं निर्ममत्वेन
वासितम् । सौहृदम ।।
त्यक्तं तैमनिसं दुःखं दुर्जनेनेव
"जिन्होंने ममतारहित होकर सन्तोष जान का पान कर लिया है उन्होंने मानसिक दुःख को उसी तरह छोड़ दिया है, जिस तरह ुर्जन मित्रता को छोड़ देता है।" सन्तोष : समस्त सद्गुणों का मूलाधार
संसार के अधिकांश महापुरुष अभावो और कठिनाइयों के बीच सन्तुष्ट रहकर ऊँचे उठे हैं। यदि वे अभावों और साधनहीनता का रोना रोते रहते तो कभी अध्यात्मसाधना में आगे न बढ़े होते। बड़े की श्रावकों ने परिग्रह की सीमा निर्धारित करके सन्तोषपूर्वक अपना जीवन अध्यात्मसाधना में लगाया है। पूनिया श्राचक क्या करोड़ों की सम्पत्ति उपार्जित करके उसका उपभोग नहीं कर सकता था ? क्या वह