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________________ ५६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ आवश्यकताएँ नहीं बढ़ा सकता था ? परन्तु उसने अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति के लिए इन पदार्थों को गौण माना। रांका-वांकर भक्तों ने भी संतोषव्रत को आजीवन निभाया। ___ संतोष संसार की समस्त आत्माओं के साध आत्मीयता एवं मित्रता स्थापित करने का परम साधन है। परोपकार, सेवा और दया आदि सत्कार्यों के करने में अपने समय, श्रम और धन का व्यय करना पड़ता है। कई बार तो कटुता, उपहास और अपमान के क्षण भी केवल इसी कारण आते हैं। शुभ कार्य करते हुए भी लोगों के ईर्ष्या और कोप का भाजन बनना पड़ता है। तात्पर्य यह है के परमार्थपथ अपने आप को खाली करने—अपना कमाया हुआ लुटाने का पथ है। भौतिक दृष्टि से उसमें हानियाँ ही हानियाँ हैं, किन्तु इन सब परिस्थितियों में एक गुण ऐसा है जो इन समस्त विषमताओं, त्याग और तपस्याओं को आध्यात्मिक विकास में बदल देता है, वह है-सन्तोष । सन्तोष आत्मा की सन्निकटता प्राप्त करने का अमोघ उपाय है। अतः सन्तोष आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति या क्षणिक तृप्ति ही नहीं, अपितु एक विशाल भावना है, जो कुछ न होने पर भी आत्मा के अनन्त भण्डार के स्वामित्व का आनन्द अनुभव कराती है। सन्तोष वह प्रकाश है, जो आत्मा के पथ को आलोकित करता है और आत्मा जैसी विशाल एवं व्यापक सत्ता को महत्ता के द्वार खोल देता है। फिर मनुष्य को सांसारिक एवं तात्कालिक भोग नहीं भाते । फिर सद्गुणों या आत्मगुणों के अधिकाधिक विकास का लक्ष्य रह जाता है, जिसमें मनुष्य को असीम तृप्ति का अनुभव और आनन्द मिलता है। जहाँ सन्तोष आ जाता है, वहाँ बाह्य दृष्टि से अभाव दिखाई देने पर भी अन्तरात्मा में किसी भी सुख के अमव का अनुभव नहीं होता। शान्ति-सुख और स्वानुभूति ही नहीं; स्वास्थ्य, साधनों का विकास और शक्ति का आधार भी सन्तोष ही है। जहां सन्तोष है, वहाँ सब कुछ है, सभी सुख है। इसीलिए गौतम कुलक में कहा गया है--'सुहमाह तुद्धि' ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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