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________________ ५४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ चाहिए, आप पर दुर्भाग्य छाया हुआ है। चाणक्य नीति में स्पष्ट कहा है सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुर शान्तचेतसाम् । कुतस्तद् धनलुब्धानामितश्वेतश्च धावताम् । "सन्तोषरूप अमृत से तृप्त शान्तहृदय फुषों के पास जो सुख प्राप्त होता है वह इधर-उधर भाग-दौड़ एवं उखाड़-पछाड़ करने वाले धनलोलुपों को कहाँ नसीब हो सकता है ?" अतः सुख सन्तोष में ही है, और सन्तोष मनुष्य के अपने उज्ज्वल दृष्टिकोण पर निर्भर है। यदि आपका दृष्टिकोण परिमार्जित और समीचीन है तो कोई कारण नहीं कि आप अपनी वर्तमान स्थिति में संतुष्ट न रह रुके और आपको उत्तम सुख प्राप्त न हो सके। पातंजल योगदर्शन तो सन्तोष से सुख प्राप्ति की गारन्टी देता है 'सन्तोषादुत्तमः सुखलाभः' -सन्तोष से उत्तम सुख प्राप्त होता है । आध्यात्मिक जीवन का मुख्य द्वार : सन्तोष __ कई लोग यह तर्क किया करते हैं कि जब हमारे पास धन, बल, साधन और बुद्धि है तो हम अपनी सम्पत्ति और साधन सुविधाएँ अधिकाधिक क्यों न बढ़ाएँ ? अपनी अल्पसाधनयुक्त स्थिति में ही संतुष्ट होकर बैठ जाना क्या आलसी बनकर बैठ जाना नहीं है ? भगवान महावीर ने इस पर बहुत सुन्ठा समाधान दिया है। यदि मनुष्य मन में तृष्णा या लोभवृत्ति रखकर अधिकाधिक धन और साधन बढ़ाने के पीछे दौड़धूप करेगा, या अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाएगा, तो वह आगे चलकर तृष्णा की मृगमरीचिका में ऐसा उलझ जाएगा कि सुख की उससे कोसों दूर हो जाएगा, उसे अपने जीवन का आलविकास, आत्मनिरीक्षण एवं श्वात्मशुद्धि करने का जरा भी अवकाश न मिलेगा, और न ही उसके लिए श्रवण, नान एवं कुछ धर्माचरण करने की रुचि रहेगी। तब कृत्रिम विषय सुखों का पदार्थजानेत क्षणिक सुखों का जितना आकर्षण बढ़ता जाएगा, व्यक्ति का जीवन उतना ही जटिल, अस्त-व्यस्त, संघर्षमय, ईर्ष्यालु, असन्तुष्ट एवं दुःखी बन जाएगा, आत्मा पा अशुद्धियों का जाला जम जाएगा ऐसे परिग्रह और आरम्भ के सागर में डूबे हुए लोग सच्चे वीतराग-धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकते, आचरण तो बहुत दूर की बात है। पूर्वपुरुषों के जीवन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनमें जो शक्ति और बुद्धि थी, उससे वे आज की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक सम्पत्ति अर्जित कर सकते थे, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी प्राप्त कर सकते थे, तब जनसंख्या भी अधिक न थी, इसलिए साधन और सुविधाएँ भी अब की अपेक्षा कई गुना अधिक उन्हें प्राप्त हो सकती थीं, परन्तु उन्होंने भीतिक सम्पत्ति को तथा आवश्यकताओं में वृद्धि को महत्व नहीं दिया ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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