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________________ सुख का मूल : सन्तोष ५३ ये ही सबसे अधिक सुखी हैं। उनका यह सुख साधनजन्य नहीं होता, वरन् सन्तोषजन्य होता है। संतोष की मस्ती में ही वे इस तरह विनोदरत होते हैं। चिन्ताएं तो उन्हें घरे रहती हैं, जिनकी तृष्णा विशाल होती है। जिन्हें आज की स्थिति से संतोष है, और कल की चिन्ता नही है, भला दुख उनका क्या कर सकेगा? इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा है—'सन्तोषमूलं हि सुखम्' सुख का मूल सन्तोष है। मनुष्य जीवन मे जो दुख और अशान्ति है, वह तृष्णाओं की बाढ़, कामनाओं का अनियंत्रण और असंतुलित भोग की आकांक्षाओं के कारण है। छोटे-छोटे पशु-पक्षी आदि जीव जन्तु अल्पक्षमता और स्वल्प साधन होते हुए भी दिन भर इधर से उधर चहकते-फुदकते, यथालाभ सन्तोषपूर्वक मस्ती में रहते हैं वे नित्य नवीनत । का दर्शन करते हुए आनन्द प्राप्त करते हैं। उनकी इस मस्ती के मूल में सन्तोष की वृत्ति काम करती है। मनुष्य भी अगर अपने जीवन की थोड़ी सी आवश्यकताओं की मूर्ति सन्तोषपूर्वक साधारण प्रयास से कर ले तो उसे लम्बी-चौड़ी दौड़-धूप की आवश्यकता नहीं होती। यदि मनुष्य उतने से सन्तोष कर ले तो उसके जीवन में नई आत्मशक्ति, ज्ञान और नवीनता के आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। इसके लिए उसे कहीं बाहर भटकने की किसी से सुख मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। शेक्सपियर के शब्दों में कहूं तो—“सबसे अधिक प्राप्ति उसी को होती है, जो सन्तुष्ट होता है।" परन्तु अल्पसाधन वाले व्यक्तियों की दृष्टि ऊपर वालो की ओर होने से वे असन्तोषी हो जाते हैं। यदि वे अपनी दृष्टि जल लोगों की ओर मोड़ लें तो उनसे भी कठिन स्थिति में रह रहे हैं, जिनके पास उतन।कुछ भी नहीं है, जितना उनके पास है तो निश्चय ही उन्हें अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तोष होगा। आप ऐसे हजारों व्यक्तियों को प्रतिदिन अपने चारों ओर देखते होंगे, जिम्के पास रहने की एक छोटी-सी झोंपड़ी है, या वह भी नहीं है, वे फुटपाथ पर सोकर पर्दी, गर्मी और वर्षा के दिन काटते हैं, सवारी के नाम पर वे १०-१२ मील पैदल चलकर आते जाते हैं और जीविका के नाम पर बारह बारह घटे पसीना बहाते। ऐसे भी लोग हैं, जो दिन में दोनों समय रोटी भी नहीं पाते, जिनको आप से कही कम सुविधाएँ हैं, फिर भी वे हर समय, हर हाल में मस्त, सन्तुष्ट, प्रसन्न और सुखी रहा करते हैं। वे असन्तोषी बनकर न तो अभाव महसूस करते हैं और न ही अपने को दुखी या अभागे मानते हैं। वे ईमानदारी से परिश्रम करते, यथालाभ सन्तोष करते और प्रस्त्यतापूर्वक जीवन यापन करते हैं। उन्हें देखकर आपको अपने अपेक्षाकृत अधिक साधनो के होते हुए भी सन्तोष की अनुभूति न हो, इसका कोई कारण नहीं। आप कई ऐसे व्यक्तियों को देखेंगे, जो अन्धे, काने, लूले लंगड़े एवं अपाहिज होते हुए भी अपनी वर्तमान स्थिति में मस्ती, प्रसन्नता और सन्तोष का जीवन बिता रहे हैं, ललकी अपेक्षा आप तो विशेष भाग्यवान हैं कि आपको समस्त इन्द्रियां, अंगोपांग पूर्ण एवं सक्षम मिले हैं। ऐसी स्थिति में भी आप असन्तुष्ट रहें, अपने प्राप्त साधनों में सन्तुष्ट होकर जीवन न बिताएं तो समझना
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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