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________________ सुख का मूल : सन्तोष प्रकार अभावों का क्रम लगा रहेगा। अभावों का सर्वथा अभाव होना सम्भव नहीं । आज यदि पैसे का अभाव है, तो कल विद्या का अभाव सता सकता है। यदि विद्या का अभाव नहीं है तो समाज में सम्मान या प्रतिष्ठा का अभाव दुःखी कर सकता है। यदि समाजिक सम्मान प्राप्त है तो सन्तान का अभाव मन को परेशान कर सकता है। यदि सन्तान का अभाव नहीं है तो उनके सुसन्त्रान होने का अभाव खटक सकता है। और यदि एक बार ये सभी चीजें प्राप्त हो जाएं तो भी उनकी न्यूनाधिक मात्रा, या उत्कृष्टता का अभाव या उनमें से किसी इष्ट चीज के वियोग हो जाने पर उसके अभाव का प्रश्न सामने खड़ा हो सकता है। तात्पर्य यह है कि किसी न किसी रूप में अभाव मनुष्य को दुखी करता रहेगा, बशर्ते कि मनुष्य अभाव पूर्ति को सुख मानता रहे । यथार्थ बात यह है कि अभाव का होना न होना, वस्तुओं या परिस्थितियों की मात्रा अथवा स्तर पर निर्भर नहीं है। अभाव का अनुभव होना मनुष्य की अपनी मानसिक कमी पर निर्भर है। अभाव का वास्तविक अस्तित्व तो शायद ही होता हो, परन्तु मानव का दुर्बल और अधीर मन अपने आदत के कारण उस अस्तित्व की कल्पना कर लेता है। अभाव के रूप में उसे अनुभव करने की मनुष्य की इस आदत का जन्म असन्तोष से हुआ करता है। इसीलिए पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) ABcPkcw ४१ "A tub was large enough for [Ciogenes, but a world was too little for Alexander." 'डायोजनिस के लिए एक टब भी बहुत बड़ा और पर्याप्त था, जबकि सिकन्दर ( अलेक्जेंडर) के लिए सारी दुनिया भी बहुत छोड़ो और थोड़ी थी । ' असंतोषी स्वभाव : अभावों से पीड़ित आपको अनुभव हुआ होगा कि जिसका स्वभाव ही असन्तोषी है, वह बात बात में अभाव की आह निकालेगा। उसे कुबेर का खजाना और भूमण्डल का राज्य भी मिल जाए तो भी पूर्ति या सम्पन्नता का अनुभव नहीं करेगा। उसे अपनी सारी विभूतियाँ, सारी सम्पदाएं कम ही मालूम होती रहेंगी। यदि ऐसा न होता तो जिस वस्तु के अभाव में कोई दुःखी होता है, तब उसी वस्तु के मिल जाने पर दूसरे को सुखी होना चाहिए | परन्तु ऐसा प्रायः देखने में नहीं आता । मनुष्य में लालसा इतनी अधिक बढ़ गई है कि वह अपनी उचित मर्यादाओं से कहीं अधिक चाहता है। वह यह नहीं सोचता कि मुझे अपनी योग्यता, श्रमशीलता क्षमता या दक्षता के अनुपात में जो कुछ मिला है, वह सन्तोषजनक है या नहीं ? अधिकांश व्यक्ति, जिनमें शिक्षित और व्यापारी आादि भी हैं, प्रायः असन्तुष्ट दिखाई देते हैं। इसका एक कारण यह है कि वह जितना प्राप्त हो चुका है या हो रहा है, उसे अपर्याप्त मानता है और अधिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। वह
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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