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सुख का मूल : सन्तोष
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अब उसे सोलन के पास जाने की जरूरत नरही।
अतः सुख प्राप्ति का मुख्य रहस्य या है कि मनुष्य चाह और चिन्ता से दूर रहे। जहाँ किसी वस्तु की इच्छा होती है, वहाँ तृष्णा जागती है और तृष्णा के आते ही मनुष्य उस चीज को पाने के लिए दौड़ लमाता है, इससे उसका सारा सुख पलायमान हो जाता है। उसके पल्ले तो केवल दु:ख को दुःख पड़ता है। पदार्थ को पाने के लिए दौड़-धूप का दुख, फिर उसकी रक्षा करने का दुख, तत्पश्चात् उसका वियोग हो जाने पर दुख। फिर उसके सरीखा दूसरा पदार्थापाने और उसे सुरक्षित रखने का दुख । इस प्रकार दुख का विषचक्र चलता है।
मनुष्य के दुःख का कारण : तृष्णा आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति मनुष्य के सुख का कारण नहीं है, क्योंकि उसमें मनुष्य को संतोष नहीं होता। मानव में जितना अधिक बोलने और विचार करने की शक्ति आई है, तथा मन और बुद्धि का विकास हुआ है, उतनी ही उसकी आवश्यकताएं बढ़ी हैं। एक बार की इच्छापूर्ति से उसे तृप्ति नहीं होती। वह हर बार पहले से उच्चतर साधनों की मांग करता रहता है। आज साइकिल की, तो कल मोटर साइकिल की, फिर मोटर कार की। तारार्य यह है कि इच्छाओं का तारतम्य नहीं टूटता। मनुष्य इसी गोरखधंधे में फंसा हुअम, अर्धविक्षिप्त एवं निराश्रित सा अपने को अनुभव करता है।
आज अधिकांश बनियों के विवाह प्रसंगों पर वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष के लोगों के प्रति असन्तोष व्यक्त किया जाता है। चाहे कन्या पक्ष के लोग अपनी कन्या के विवाह पर कितना ही धन या साधन दे दें, किन्तु असन्तुष्ट वरपक्षीय लोग धन के दीवाने बनकर अपनी मांगे पेश करते रहते हैं और अपना असंतोषजनित रोष बेचारी नववधू पर उतारते हैं। वे तृष्णा के अनेश में अपनी धर्म मर्यादा, कर्तव्य और उत्तरदायित्व को भी भूल जाते हैं। एक जगह विवाह के समय एक वर महोदय तो स्कूटर लेने पर ही अड़ गए। उन्हें उनके भायी ससुर ने बहुत समझाया कि अभी हमारी स्कूटर देने की स्थिति नहीं है। पर वर गम्होदय तो बिलकुल टस से मस न हुए। आखिर कन्या पक्ष वालों ने भी ऐसे लालची और हठी वर को बिना ही विवाह के बैरंग वापस लौटा दिया।
निष्कर्ष यह है कि वस्तु होने पर भी शा वर्तमान के सीमित पदार्थों से आसानी से काम चला सकने पर भी मनुष्य अपनी अनिपत्रित एवं बढ़ती हुई कामनाओं, वासनाओं एवं तृष्णाओं के कारण ही दुखी होता है। बढ़ती हुई तृष्णा ही मनुष्य को सबसे दुखी बनाती है। जीवन-निर्वाह के आवश्यक सानों के लिए मनुष्य को न तो अधिक श्रम ही करना पड़ता है, और न दौड़-धूप कानी होती है। पशु-पक्षी तक भी अपने उदरपोषण और निवास की समुचित व्यवस्था कर लेते हैं। परन्तु मनुष्य की इच्छाएं