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________________ ४०६ आनन्द प्रवचन भाग ६ नहीं चाहता, अगर सुन भी लेता है तो उसे करना नहीं चाहता, बार-बार कहने पर तो वह ढीठ ही हो जाता है। इसीलिए स्थानांग सूत्र (स्था० ३ उ० ४) में तीन व्यक्तियों का समझाना दुष्कर बताया है— तओ दुसनप्पा पण्णत्ता, तं जग्‍— दुट्ठे, मूढ़े, वुग्गहिए । "तीन को समझाना कठिन कहा है-- (१) दुष्ट (ज्ञानियों के प्रति द्वेषी) को, (२) मूढ (गुण-दोष के अनजान, अज्ञान) को, तथा (३) व्युद्ग्राहित (कुगुरु के बहकाए हुए या विग्रह- कलह वाले) को । " उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २७) में कुशिष्य के लक्षण बहुत स्पष्ट रूप से बताये हैं- "जिस प्रकार कोई गाड़ीवान दुष्ट बैलों की गाड़ी में जोत देता है, वह उन बैलों की करतूत देखकर पछताता है, वे जुए को तोड़ फेंकते हैं, गाड़ी को लेकर ऊजड़ मार्ग में चले जाते हैं, बार-बार रास्ते के बीच में ही बैठ जाते हैं, वे जानबूझकर गाड़ी को उलट देते हैं, जिससे गाड़ी में रखा हुआ सामान भी गिर जाता है। इसी प्रकार के कुशिष्य होते हैं, जिन्हें धर्मसारथी गुरु धर्मयान से जो देता है, लेकिन वे धृति और बुद्धि से निर्बल कुशिष्य जुआ उतारकर भाग जाते हैं धर्म मार्ग को छोड़कर उन्मार्ग पर चल पड़ते हैं। धर्मयान को ही तोड़ फेंकते हैं। कुछ कुशिष्य ऋद्धि के कुछ रस के और कुछ सुख-साधन के प्राचूर्य को देखकर गर्कित हो जाते हैं। कुछ क्रोधी, झगड़ालू, उद्दण्ड और प्रतिकूल भाषी होते हैं। कुछ शिष्य भिक्षा आदि लाने में आलसी, कुछ अपमानभीरू, एवं कुछ अभिमानी होते हैं। युक्तियों से समझाने पर भी तथा आत्मीयता के कहने पर भी वे दोष ही देखते हैं, पुनः पुनः उसी अपराध को करते जाते हैं। " गार्ग्याचार्य स्थविर के अनेक शिष्य थे, लेकिन सभी कुशिष्य के लक्षणों से युक्त थे। उन दुष्टशिष्यों से वे तंग आ गये, उनकी आत्मा से बहुत विषाद होता। आखिर उन्होंने सभी कुशिष्यों को छोड़ दिया और सुसमहित एवं स्वस्थ होकर एकाकी विचरण करने लगे। इसी प्रकार एक हुए हैं कालिकाचार्य । जनके भी शिष्य तो अनेक थे, पर थे वे सब के सब पहले दर्जे के आलसी । सुबह प्रतिदिन गुरुजी प्रतिक्रमण के समय उठाते, पर कोई उठता ही नहीं था, न समय पर कोई धर्मक्रिया करता था। गुरुजी उन्हें सीख देते-देते थक गये। अतः उन कुशिष्यों को गुरु की शिक्षा देना व्यर्थ हुआ। कहा भी है— दीघी पण लागी नहीं, रीते चूल्हे फूँक । गुरु विचारा क्या करे, चेला ही में चूक । यो सोचकर एक दिन प्रातः नित्यक्रिया गं. निवृत्त होकर शय्यातर श्रावक से यह कहकर विहार कर गये कि मैं सागराचार्य के प्रास सुवर्णभूमि जा रहा हूँ। मेरे शिष्य अत्याग्रहपूर्वक पूछें तो उन्हें बता देना। शिष्य देर से उठे, गुरुजी को न देखा तो घबराये। शय्यातर से पूछा तो पता
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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