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कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप
लगा। तत्पश्चात् वे सब वहां से बिहार करके एक दिन गुरुजी के पास पहुंचे। सागराचार्य भी पहले तो अपने दादागुरु वतलिकाचार्य को पहचान न सके, इसलिए अवज्ञा एवं उपेक्षा की। पर बाद में पता लगा तो उनसे क्षमा-याचना की।
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बन्धुओ ! अनेक कुशिष्य भी गुरु के लिए सिरदर्द होते हैं फिर उन्हें हित- शिक्षा देना तो बहुत ही दुष्कर है, कोरा प्रलाप है। इसीलिए महर्षि गौतम ने चेतावनी दी हैं—
'बहू कुसीसे कहिए विलोवो'
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