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कुशियी को बहुत कहना भी विलाप कलाचार्य से उसने बहुत अनुनय-विनय किया कि उस साधनविहीन को अपने आश्रम में स्थान एवं विद्यादान देकर कृतार्थ करें। कराचार्य ने उस छात्र को अपनी झोपड़ी में स्थान दे दिया।
एक रात को गुरु-शिष्य झोपड़ी में सो रहे थे। आश्रम के अगले भाग में एक दीपक जल रहा था। गुरु प्रतिदिन उसे बुझाकर सोया करते थे, पर आज वे बुझाना भूल गये थे। अतः उन्होंने शिष्य से कहा---'जाओ, दीपक बुझा आओ।" ठंढी रात थी, सोया हुआ शिष्य आलस्यवश उठना नहीं चाहता था, किन्तु गुरु ने काम सौंप दिया, अतः क्या करे ? उस कुटिल छात्र ने वक्रता से कहा- "गुरुजी ! आप अपना मुंह ढांक ले, और अपने लिए दीपक बुझा हुना समझ लें।"
गुरु ने सोचा कैसा आलसी है उठना नहीं चाहता। पर इसे उठाना चाहिए। अतः कलाचार्य ने फिर आवाज दी तो बोला-"कहिए न, क्या काम है ?"
गुरु बोले---" देखो तो वर्षा थमी या नहीं ?" शिष्य ने सोचा--अब बिना उठे काम नहीं चलेगा, फिर भी उसने अपनी कुबोद्ध और तू-तू करके बाहर कुत्ते को अन्दर अपने पास बुला लिया और उसके शरीर पर हाथ फिराकर देख लिया। कुत्ते का शरीर सूखने लगा, इसलिए कह दिया कि वर्षा बर है। पर वह उठा बिल्कुल नहीं।
गुरुजी उसकी कुटिलता पर हैरान हैं। पर उन्होंने भी ठान लिया-आज इसे उठाना जरूर है। अतः फिर पुकारा--"ऑ! कुटिया का दरवाजा खुला रह गया है, बन्द कर आओ तो !" वह सोचने लगा-आज गुरु क्यों मेरे पीछे पड़े हैं। मुझे वे ज्यों-त्यों करके उठाना चाहते हैं, पर मैं भी...। वह तपाक से बोला--"गुरुजी ! दो काम मैंने कर दिये। एक काम तो आप भी कर लीजिए। सारे दिन बैठे रहने से शरीर स्थूल हो जाता है।" यो कहकर वह मुंह ढककर आराम से सो गया, उठा नहीं।
कलाचार्य उस शिष्य की बात सुनका सन्न रह गये। यह छात्र मुझे पढ़ाने आया है, मुझसे पढ़ने नहीं। यह कुशिष्य है, ज्ञानाका पात्र नहीं।
कुशिष्य उपदेश के पात्र क्यों नहीं उत्तराध्ययन सूत्र में शिक्षा के अयोग्य पात्र कौन हैं ? इसका एक गाथा में उल्लेख कर दिया है
अह पंचहि ठाणेहिं जेहिं सिक्का न लब्बो। थंभा कोहा पमाएणं, रोगेपालस्सएण।
शिक्षा के लिए अयोग्य पात्र को : कारणों से शिक्षा प्राप्त होती--अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य । कुशिष्य में इनमें से रोग को छोड़कर शेष ४ कारण पाये जाते हैं। गुरुओं से भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन्हें प्रसन्न करके, उनके हृदय को जीतकर तथा उनकी विनय-भक्ति, सेजा-शुश्रुषा करके, परन्तु कुशिष्य में ये सब बातें होती नहीं, इसलिए वह किसी भी बात को हितकर बात को प्रथम तो सुनना ही