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________________ दुःख का मूल : लोभ ३३ लोभा से स्वास्थ्य और आयु पर गहरा प्रभाव लोभ में एक प्रकार का गोपनीय भाव होता है। लोभी मनुष्य अपने धन को, धन रखने के स्थान को, धन कमाने की विधि को गुप्त रखने का प्रयत्न करता है। उसे हर क्षण यह चिन्ता लगी रहती है कि कों मेरी यह बातें प्रगट न हो जायें। धन सम्बन्धी गोपनीय भावों का प्रवाह लोभी के जीवन में बहता रहता है। इसलिए लोभी का जीवन चिन्ता और भय से भरा रहता है और ये दोनों बातें आयु को कम करने एवं स्वास्थ्य नष्ट करने वाली होती हैं। इसीलिए शास्त्र में कहा है 'लोहाओ उहओ भयं, -लोभ से यहाँ और वहाँ दोनों जगह भय बना रहता है। लोभी के मन में निरन्तर धन संचय करने के विचारों का प्रवाह जारी रहने से सुप्त मन पर वैसा ही प्रभाव पड़था है। कह भी संचय की नीति को अपना लेताहै। फलस्वरूप शरीर में जमा करने की क्रिया अधिक और त्यागने की क्रिया कम होने लगती है। इसका असर पेट पर शीघ्र होता है। दस्त साफ होने में रुकावट पड़ने लगती है। पेट भरा रहता है, उसमें मल इकट्ठा होता रहता है। शीच केसमय आँतों की माँसपेशियाँ अपने संचालक (सुप्तमन) ने आदेश का पालन करती हैं। वे त्याग में यड़ी कंजूसी करती हैं। फलस्वरूप जो मल अधिक मात्रा में है, वही निकलता है, बाकी पेट में ज्यों का त्यों पड़ा रहता है, और सड़ा सड़कर अनेक विष पैदा करता है। पेट के ये ही विष रक्त में मिलकर असंख्य रोगों वेत घर बन जाते हैं। सड़ा हुआ मल पेट में दूषित वायु पैदा करता है। हृदय के ये विक रक्त में मिलकर असंख्य रोगों के घर बन जाते हैं। सड़ा हुआ मल पेट में दूषित वायु पैदा करता है। हृदय की अधिक धड़कन, सिरदर्द, निद्रा की कमी, गठियावात आदि रोग इसी दूषित विकार से होते हैं। इसी संकोचनीति के कारण त्वचा के रोमकूप पसीना अच्छी तरह नहीं निकालते और संकोचनीति के कारण ही रक्त में मिले हुए विषाक्त पदार्थ दूर नहीं होते। लोभी व्यक्तियों की जोड़-जोड़कर इट्टा करने की इच्छा शरीर में अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक व्याधियों को बुलाती है। इसीलिए तो लोभी व्यक्ति कितनी ही कीमती दवाओं का सेवन करने या बहुमूल्य भोजन भी करले, फिर भी उसके तन-मन स्वस्थ नहीं रहते। प्रायः धनलालुप मनुष्य सन्तान के लिए धन नहीं चाहते, वे धन की रक्षा के लिए सन्तानरूपी चौकीदार चाहते हैं ताकि लके मरने के बाद भी उनका धन सुरक्षित रहे। ऐसे व्यक्ति के सन्तान हो तो वे उसकी शिक्षा-दीक्षा, सदाचार और धर्मसंस्कार पर उदार हृदय से व्यय नहीं करते। लोभ के कारण शरीर का रोगी और मन का अस्वस्थ रहना कितना बड़ा दुःख है। 'पहला सुख निरोगी काया', यह कहावत भारत के घर-घर में प्रचलित है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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