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________________ ३२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ गए थे। एक मकान की छाया में विश्राम लिया। मकान मालाकेन वेश्या ने खिड़की से पण्डितजी को बैठा देखा तो वह द्वार खोलवर बाहर आई। पण्डितजी से परिचय जानना चाहा तो उन्होंने पहली बार में ही अपनी सारी रामकहानी कह डाली। वेश्या सोचती रही कि इतने विद्वान् होने पर भी इन्हें पता नहीं कि पाप का बाप कौन है। वेश्या ने पण्डितजी से कहा-"उत्तर ती मैं बता सकती हूँ, बशर्ते कि आप मेरे घर में पधारकर इसे पवित्र करें। पर मैं वेश्या हूँ, यह मकान मेरा है।" यह सुनते ही पण्डितजी छी-छी कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोले---- ''मैं धर्मभ्रष्ट नहीं होना चाहता।" वेश्या ने कहा--"मर्जी आपकी ! पर मेरे घर की छाया में बैठे ब्राह्मणदेव को दक्षिणा देना मेरा कर्तव्य है।" यों कहकर श्या ने दो स्वर्णमुद्राएँ उनके चरणों पर फेंक दी। मोहरों की चमक से मुग्ध बने पण्डितजी उसके आग्रह से घर में जा घुसे। वेश्या जब पानी का गिलास उनके हाथ में शनाने लगी, तब एक बार तो बिजली के करंट लगने की तरह पण्डितजी पीछे हटे। परन्तु चार मोहरों की चमक से वह भी सम्भव हो गया। जलपान ही नहीं, भोजन भी हुआ। यहाँ तक कि कुछ ही स्वर्ण मुद्राओं की चकाचौंध में आकर वे वेश्या के मुँह का झूठा पान भी खाने को उतावले हो उठे। पर पण्डितजी अपने प्रश्न का उत्तर पाने की अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी वेश्या ने मीठी मुस्कान भरकर मूछा--"भूदेव ! अब तो आप समझ ही गए होंगे कि पाप का बाप कौन है ?" वे बोले- "तुमने कुछ भी नहीं बताया। मैं कैसे समझ जाता?" बेश्या- "बाह ! अब भी नहीं समझे? देखिये--आप तो मेरे मकान की छाया में बैठना भी पाप समझते थे, किन्तु उसके हाद निःसंकोच गृहप्रवेश, जलपान, भोजन और फिर झूठा पान, ये सब किस कारण हुा ? इसका उत्तर स्वर्णमुद्राओं का लोभ ही तो है ?" अब पण्डितजी योलते भी क्या? सचमुच पण्डितजी जिस बात को धर्म समझकर चले थे, धन के लोभ ने उस धर्म से उन्हें बिलकुल नीचे गिरा दिया। इसीलिए महाभारत (शान्तिपर्व) में कहा है 'लोभाद् धर्मो विनश्यति।' -लोभ से धर्म का नाश हो जाता है। धनलोभ के आगे मनुष्य अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य या धर्म को भी तिलांजलि दे देता है। पिता चाहे मरणशया पर हो, परन्तु पुत्र को धनलोभ का रोग हो तो वह धर्मविमुख या कर्तव्यभ्रष्ट होते हर नहीं लगाता। वह सोचता है—पिताजी तो अब जिंदगी के किनारे लग गये हैं, उन्हें तो एक-न-एक दिन मरना ही है, उनके लिए बेकार रुककर अपने धन-लाभ के मौत को हम हाथ से क्यों जाने दें ?
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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