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________________ दुःख का मूल : लोभ इसी लोभ से प्रेरित होकर संमार में न जाने कितने अनर्थ होते हैं। व्याभिचार और वेश्यावृत्ति दुनिया में धनलोभ के आधार पर ही तो चल रही है। कोई भी ऐसा पाप या अपराध नहीं, जो लोभ के कारण होता हो। धन-लोभ के वशीभूत होकर १६ साल की लड़की ६० साल के बूढ़े के साथ शादी कर लेती है और अपने जीवन को बर्बाद कर देती है। इसीलिए एक अनुभवी ने कहा है जनकः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां लीभः सर्वार्थबाधकः। "लोभ सभी दोषों का जनक है, गुणों का भक्षण करने वाला राक्षस है। लोभ विपत्तिरूपी लताओं का झुंड है, वह सभी सुकगों में बाधक है।" लोभ : धर्म विनाशक जहाँ लोभ का निवास है, वहाँ धर्म नहीं रहता। लोभ के कारण मनुष्य की बुद्धि धर्मयुक्त नहीं रहती। उसके मन में धर्म को ताक में रख देने के विचार उठते हैं। मनुष्य लोभ के कारण धर्म के साथ सौदेबाजी कर लेता है। वह सोचता है-धर्म तो अपने पास ही है, चाहे जब वापस ले लेंगे। धन कब-कब मिलेगा ? उसे विश्वास ही नहीं होता कि धन तो नाशवान है, और वह फिर भी पुरुषार्थ से मिल सकता है, लेकिन धर्म तो एक बार चले जाने के बाद पुनः प्राप्त होना अतीव दुष्कर है। मनुष्य जब धर्म का एक सोपान चूक जाता है तो फिर संभलता नहीं, उसके मन में भी धर्मभ्रष्ट होने का कोई दुःख या पश्चाताप नहीं होता और एक के बाद एक सोपान पर लुढ़कता हुआ नीचे आकर पतन वे गड्ढे में गिर जाता है। लोभ के वश ही वह असत्य बोलता है, चोरी और बेईमानी करता है, ब्रह्मचर्यभंग करता है. परिग्रह की सीमा को तोड़ देता है, हिंसा पर उतर उपता है। कई व्यापारी अहिंसा धर्म के संस्कारों में पले हुए होने पर भी लोभवश मांस एवं मछलियों के पैक डिब्बे बेचते हैं, वे धड़ल्ले से मुर्गीपालन करते हैं, क्योंकि उस धो में बहुत ज्यादा मुनाफा मिलता है। यहाँ तक कि पदलोम, प्रतिष्ठालोभ, सत्तालभि, अधिकारलिप्सा आदि के कारण बड़े-बड़े नेता या लोकसेक्क तक तिकड़मबाजी से चुनाव जीत जाते हैं, कई बार वे दूसरों की हत्या करवाकर या झूठे षड्यंत्र रचकर किसी को बदनाम करके स्वयं उस पद या स्थान को संभाल लेते हैं। राजनीति के क्षेत्र में तो लोभ के कारण इतनी सड़ान है ही, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में भी यह रस्साकस्सी चलती है। लोभ की मार दूर-दूर तक चलती है। जब किसी को नीचे गिरगना होता है या कर्तव्यभ्रष्ट करना होता है तो द्रव्यलोभ की मार से किया जाता है। एक दिग्विजयी पण्डित को राजसभा में गूछा गया--"पाप का बाप कौन ?" अनेक विषयों में पारंगत होते हुए भी पण्डितजी को उत्तर न सूझा। उन्होंने सात दिन की मुद्दत माँगी। वे शहर छोड़कर पैदल ही भागे। एक गाँव में पहुँचे। थककर चूर हो
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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