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कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३६१ चाहिए, क्योंकि बड़े खाने वाले उस शिष्य की तरह वह उसकी विडम्बना ही करवाता
कुशिष्य : गुरत को हैरान और बदनाम करने वाले कई बार ऐसे कुशिष्य जिद्दी और दुर्दिनति होकर गुरु को हैरान कर बैठते हैं। वे फिर आगा-पीछा नहीं सोचते कि ऐसा व्यवहार करने से गुरुजी के हृदय को कितना आघात पहुँचेगा ? उनकी कितनी अवज्ञा और आशातना होगी ? उस आशातना से कितना भयंकर पापबन्ध होगा, और कितना भयंकर दुष्परिणाम भोगना होगा ? दशवैकालिक सूत्र (अ०६) और उत्तराध्ययन पूत्र (अ० १) में शिष्य के द्वारा बिनय
और अविनय के सम्बन्ध में भलीभाँति बताया। गया है। जहाँ शिष्यों पर अनुशासन करते समय गुरु के हृदय के भावों को व्यक्त करते हुए कहा गया है
स्मए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए।
बालं सम्मई सासंतो, गरियस्स व वाहए।। "जातिवान घोड़े को शिक्षा देने वाले शिक्षक की तरह विनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ गुरु आनन्दित होता है और बाल )अविनीत) शिष्य को शिक्षा देते समय गलित अश्व-दुष्ट घोड़े को सिखाने वाले शिक्षाक की तरह खिन्न दुःखित होता है।"
इसे ठीक तरह से समझने के लिए एक दृष्टान्त लीजिए
एक गुरु-शिष्य विचरण करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक नदी आई। नदी में काफी पानी था। शाम का समय था। संयोगवश एक बाई नदी के किनारे खड़ी किसी का इन्तजार कर रही थी। उसे नदी के उस पार जाना था। अकेले नदी पार करने में डूब जाने का भय था। रात को नदी के किनारे रहने को कोई जगह न थी, अकेले रहने में डर भी था। भयभ्रान्त बाई ने शुद्ध आचार्यश्री से प्रार्थना की गुरुदेव ! मुझे भी कृपा करके नदी पार करा दीजिए।" ___महिला की बात सुनकर कठोरहृदय शिग्य ने अपनी नजर जमीन में गड़ा दी, उसकी बात का कोई उत्तर न दिया। परन्नु सहृदय आचार्य से न रहा गया। आचार्यश्री ने उसे आश्वासन दिया और नदी पार करा देने को कहा। वैसे तो साधु को स्त्री स्पर्श करना बर्व्य है। इसलिए वह बाई थोड़ी दूर तक तो नदी के पानी में साथ-साथ चली। आगे पानी गहरा था, इसलिए वह डूबने लगी तो आचार्यश्री ने उस पर दया करके उसे कंधे पर बिठा लिया और नदी पार करा दी। बाई अत्यन्त प्रसत्र होकर गुरुजी का एहसान मानती एवं कष्ट के लिए क्षमा माँगती चली गई। परन्तु शिष्य के मन में गुरुजी के इस व्यवहार के प्रति असंतोष था। उसने गुरुजी से कहा--"आपने उस रूपयौवना को कंधे पर बिाकर नदी पार कराई, यह मुझे उचित न लगा। उसके रूपलावण्यमय देह का आपके कंधे और हाथों से स्पर्श हुआ, क्या इसमें ब्रह्मचर्यव्रत भंग का पाप नहीं हुआ ?"